भारत के विभिन्न क्षेत्रों से उपलब्ध वस्त्रों, पाशाणचित्रों, मृत्तिका पात्रों, लाल-पीले रंगों में चित्रित रेंगते हुए कीड़ों, पशुओं, पक्षियों मनुष्यों आदि की आकृति का अध्ययन करके प्रागैतिहासिक भारत के कलाप्रेम का सहज ही मंें परिचय मिल जाता है। आज की भाँति आदि मानव भी सौन्दर्योपासक था। इसी सौन्दर्यप्रेम के कारण वह अपने अमूर्त भावों को मूर्त रुप देने की ओर प्रवृत्त हुआ। इसके प्रमाण हमें मोहनजोदड़ो तथा हडप्पा की खुदाईयों से उपलब्ध कला सामग्री में देखने को मिलते है। ऋगवेद की प्राचीनतम मंत्र संहिता की एक ऋचा से ज्ञात होता है कि उस समय चमड़े पर चित्र अंकित करने का प्रचलन था। ऋगवेद के कुछ मंत्रों में यज्ञषालाओं की चैखटों पर द्वार देवियों के चित्र अंकित किये जाने का उल्लेख मिलता है।
सम्राट अषोक द्वारा पल्लवित एवं संरक्षित कला की थाती आज भी देखने को मिलती है। पटचित्रों के निर्माण में बौध्दकला की विशेष ख्याति रही है। बाघ और अजंता के चित्रों में रेखाओं का सुलेखन और रंगों के प्रयोग की विभिन्न परिपाटियाँ इस युग के चित्रांकन का विकास व्यक्त करती है। अजंता, एलोरा और बाघ की गुफाओं की चित्रकारी में गुप्तकालीन कला का वास्तविक रुप देखने को मिलता है। भारतीय चित्रकला के इतिहास में भित्तीचित्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। भित्तिचित्र भीमबेटका, जोगीमारा, बाघ, अजन्ता बादामी, सित्तनवासल, ऐलोरा, ऐलीफेंटा की गुफाओं में देखने को मिलते है। चित्रकला के उत्थान में दक्षिण भारत भी अग्रणी रहा है। भारतीय चित्रकला के इतिहास में राजपूत षैली की अपनी विशिष्टता और अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। भारत में मुगल काल की स्थापना के बाद चित्रकला के क्षेत्र में एक नयी दिषा प्रकाष में आयी। पहाड़ी चित्र षैलियों की निर्माण भूमि हिमाचल रहा है-जम्मू, टिहरी, गढवाल, कल्लू, चम्बा, बसौली, कांगड़ा आदि इसके क्षेत्र रहे है।
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