भारत के संदर्भ में सनातन-पुरातन अवधारणा रही है कि भारत गाँवों का देश है जिसकी आर्थिक-सामाजिक प्राप्ति का आधार कृषि है, जैसा कि निम्नांकित श्लोक से स्पष्ट होता है।
‘‘यथा शूद्र जनप्राय, समृद्ध कृषिकला
क्षेत्रोप योग भूमध्र्य, वसति ग्राम संज्ञिका।’’1
पौराणिक संस्कृत साहित्य के मार्कण्डेय पुराण में, ग्राम के संदर्भ में उक्त उल्लेख आया है। गाँव की विशेषता में कहा गया - जहाँ कृषि कार्य किया जाता है एवं जहाँ कृषि क्षेत्र समूह है वह गाँव है।
गाँव का उदय, इतिहास के कृषि अर्थव्यवस्था के उदय के साथ जुड़ा है। हल (ब्नसजपअंजवत) के अविष्कार के कारण ही मनुष्य स्थायी रूप से कृषि का विकास कर पाया जोकि खाद्यान्न की व्यवस्था का मूल स्रोत है।
ग्रामीण विकास आम तौर पर अपेक्षाकृत पृथक व कम आबादी वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आर्थिक खुशहाली से संबद्ध जीवन स्तर में सुधार की प्रक्रिया को दर्शाता है।2
विद्वानों ने ग्रामीण विकास की परिभाषायें निम्न प्रकार दी हैं -
ग्रामीण विकास को शाब्दिक रूप में परिभाषित करने का अर्थ है - ग्रामीण का चहुँमुखी विकास। वह विकास जिससे वहां की जनता का शारीरिक एवं मानसिक विकास हो सके।
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