PSYCHOLOGICAL APPROACH TO TEACHING CLASSICAL MUSIC FOR STUDENTSशास्त्रीय
संगीत
शिक्षण का
विद्यार्थी
हेतु
मनोवैज्ञानिक
टृष्टिकोण डॉ
गोविन्द
सिंह बोरा *1 1 वभागाध्यक्ष संगीत, एम.बी.पी.जी. महाविद्यालय, हल्द्वानी , नैनीताल उत्तराखण्ड, 263139, इंडिया. |
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Received 28 July 2021 Accepted 13 August 2021 Published 31 August 2021 Corresponding Author डॉ
गोविन्द
सिंह बोरा, vocalistgovind@gmail.com DOI 10.29121/granthaalayah.v9.i8.2021.4201 Funding:
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credited. |
ABSTRACT |
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(English)- “Music
has been continuously cherished by human society like the beating of its
heart from the primordial stage to the advanced stage of today. As long as
the vocal power is present in the human being, the tones of music will
continue to increase his self-power. Music has always been prominently
accepted in life and will continue to be accepted. Because music is human
nature. This is the psychological value of music in human life, it is the
importance and reason that makes life enjoyable by making the complexity of
our life easy and simple”-Chintan and Sinha (2008). (Hindi)-
‘‘संगीत को
मानव समाज ने
अपने हदय की
धड़कन के समान
आदिय अवस्था
से आज की
विकसित
अवस्था तक
निरन्तर अवछिन्न
रूप से
संजोया हैं।
मानव मे जब तक
स्वर शक्ति
विद्यमान
हैं, संगीत
के स्वर उसका
आत्म बल
बढ़ाते
रहेंगे। संगीत
सदा जीवन में
प्रमुखता से
स्वीकार
किया जाता
रहा हैं और
स्वीकार
किया जाता
रहेगा। क्योंकि
संगीत मानव
की प्रकृति
है मानव का
स्वभाव हैं।
मानव जीवन
में संगीत का
यही
मनोवैज्ञानिक
मूल्य हैं
महत्व हैं और
कारण हैं जो
हमारे जीवन
की जटिलता को
सहज सरल व
सुग्राहा
बनाकर जीवन
को आनन्दमय
बनाता है’’-Chintan and Sinha (2008). |
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Keywords: Contribution
in National Awareness, Scientific Educational Branch, Unconscious Reactions 1. प्रस्तावना मानव
जीवन में
संगीत का
महत्वपूर्ण
स्थान हैं यह
विषय जितना
श्रेष्ठ कला
के रूप में
उतना ही शिक्षा
के रूप में भी
हैं। मनुष्य
के सर्वांगीर्ण
विकास
मानसिक
विकास
बौद्विक
विकास,
उत्तम चरित्र
निर्माण तथा
समाज के
उत्थांन के
लिए संगीत
शिक्षा की
भूमिका
महत्वपूर्ण
रही हैं।
रविन्द्रनाथ
टैगोर ने
मानव जीवन
में संगीत के
महत्व को
समझते हुए
अपने
स्थापित किए
शिक्षा
संस्थान में
संगीत विषय
को उचित
स्थान प्रदान
किया। ’’संगीत एक
उच्च कला हैं,
जो
संस्कृति का
एक प्रमुख
अंग हैं।
राष्ट्रीय
चेतना की
प्रतिष्ठा में
उसका
असंदिग्ध
योगदान हैं
विश्व भाषा
होने के नाते
संगीत
राष्ट्र की
भावात्मक
एकता की
स्थापना में
तो विश्व
परिवार की
भावना का
प्रबल पोषक
तत्व हैं। अतः
किसी न किसी सीमा तक
देश के
प्रत्येक
बच्चे और
नागरिक को संगीत
की शिक्षा दी
जानी बहुत
आवश्यक है’’-Sharma (2001) जीवन में
जीवन के
प्रत्येक
क्षेत्र में
मनोविज्ञान
की अहम
भूमिका रही
हैं। जीवन का सैद्धांतिक
पहलू था
प्रायोगिक
पहलू दोनों
पर ही
मनोविज्ञान
का गहरा
प्रभाव पाया
जाता हैं। |
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प्राचीन
काल से ही
शिक्षा के
क्षेत्र में
मनोवैज्ञानिक
दृष्टिकोण
अपनाया जाता
हैं और यह बात शास्त्रीय
संगीत शिक्षण
के लिए भी
लागू होती हैं
कि शास्त्रीय
संगीत शिक्षण
मनोवैज्ञानिक
दृष्टि कोण के
अनुसार ही
दिया जाए।
‘‘मनोविज्ञान
शब्द दो ग्रीक
साइकी
अर्थात्
आत्मा और आॅगोस
अर्थात्
विज्ञान अथवा
एक विषय के
अध्ययन से बना
था। परन्तु तब
से इसका
केंद्रीय बिंदु
बहुत अधिक बदल
चुका हैं तथा
यह अपने को एक
वैज्ञानिक
विद्याशाखा
के रूप में
स्थापित कर चुका
हैं जो मानव
अनुभव एंव
व्यवहार में
निहित
प्रतिक्रिओं
की विवेचना
करता है’’- Tripathi and Tripathi (2014)
और यदि
दूसरे शब्दों
में कहा जायें
तो, ‘‘मनोवैज्ञानिक
प्राणियों के
विचारों, भावनाओं
एवं क्रियाओं
के बारे में
सभी प्रकार की
वैज्ञानिक
जानकारी
प्राप्त करने
के सम्बन्ध
रखते हैं। वे
सभी निरीक्षण
योग्य
व्यवहार, संज्ञानात्मक
प्रतिक्रियाओं, शारीरिक
प्रतिक्रियाओं, समाजिक
एंव
संास्कृतिक
प्रभावों, छिपी
हुई अचेतन
प्रतिक्रियाओं
का अध्ययन करते
हैं। इसके साथ
इनकी
अन्तक्रियाओं
का भी अध्ययन
करके व्यवहार
को समझने का
प्रयास करते हैं।‘‘-Moorjani and Jain
(2007)
वर्तमान
समय में चल
रही शिक्षा
पद्वति में विद्यार्थी
को शिक्षा
प्रदान करने
के साथ-साथ विद्यार्थी
के शारीरिक, मानसिक
एवं सामाजिक
हर एक पहलू पर
विशेष ध्यान
दिया जा रहा
हैं। क्योंकि
व्यक्तित्व
का पूर्ण विकास
करना ही
वर्तमान
शिक्षा
पद्वति का
उद्देश्य
हैं।
शिक्षा
पद्वति को एक
नवीन
दृष्टिकोण
मनोविज्ञान
से ही प्राप्त
हुआ हैं।
शिक्षा-मनोविज्ञान
द्वारा ही
विद्यार्थियों
का सर्वांगीर्ण
विकास सम्भव
हैं।
जिस
प्रकार
शिक्षा का
सम्बन्ध
मनोविज्ञान से
हैं ठीक उसी
प्रकार शास्त्रीय
संगीत शिक्षा
का सम्बन्ध भी
मनोविज्ञान
से हैं।
‘‘संगीत
विषय के
सन्दर्भ में
परम्परागत
शिक्षण के
अनुसरण एवं
तदानुसार
क्रियान्वयन
की व्यवहारिकता
पर जब
गंभीरतापूर्वक
विचार किया जाता
हैं तो यह
पाया जाता हैं
कि मूल में जो
शिक्षा
अन्तर्निहित
है और जिन सिद्वान्तो
पर यह आधारित
हैं,
उस शिक्षा
सिद्वान्त के
द्वारा हम
शिक्षा के उद्देश्य
और उसके
विषय-विस्तार
का ज्ञान प्राप्त
कर सकते हैं।
इस प्रक्रिया
में मनोविज्ञान
उन
उद्देश्यों
की प्राप्ति
में सहायता प्रदान
करता हैं। यह
मनोविज्ञान
ही हैं जो हमें
बताता हैं कि
विषय के प्रति
चिन्तन करने, सोचने
की
सर्वश्रेष्ठ
विधि कौन सी
हैं। विषय-वस्तु
को शीघ्र और
रोचक ढ़ग से
किस प्रकार
अध्ययन किया
जा सकता हैं।‘‘-Kumar (1999)
ललित
कलाऐं न केवल
मन के भावों
को प्रकट करने
का साधन नहीं
वरन् मानव की
मानसिक
भावनाओं को व्यक्त
करने का भी एक
उत्तम साधन
हैं। शारीरिक
तथा मानसिक
भावनाओं को
निभाती हैं
यदि मनोवैज्ञानिक
दृष्टिकोण से
देखा जाए तो
संगीत महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाती हैं।
संगीत की सभी
विधाओं में
सृजनशीलता
आवश्य
विद्यमान
रहती हैं।
इसलिए मनुष्य
जैसे ही संगीत
सीखना प्रारम्भ
करता हैं
उसमें
सृजनशीलता के
गुणों का विकास
होना
प्रारम्भ हो
जाता हैं।
यदि हम
विद्यार्थियों
के सन्दर्भ
में शास्त्रीय
संगीत के
मनोवैज्ञानिक
चिन्तन तथा
सीखना आदि
मानसिक प्रक्रियाऐं
इसके
अन्तर्गत
आयेंगी।
स्मृति-‘‘स्मृति
से हमारा
तात्पर्य हैं
किसी चीज को अनुभव
करके अपने मन
में संग्रहीत
कर के रखना तथा
समय आने पर
अथवा उसकी
जरूरत पड़ने पर
उसे प्रस्तुत
करना।‘‘- Kalkarli (2004)
शास्त्रीय
संगीत के लिए
विद्यार्थी
में स्मरण
शक्ति का होना
बहुत आवश्यक
हैं। किसी भी, राग, गीत, ताल, धुन
आदि को सीखना
और उसे याद
रखना
विद्यार्थी के
लिए अत्यन्त
आवश्यक हैं
जिससे वह
विद्यार्थी
समय आने पर उसका
अच्छा
प्रदर्शन कर
सके।
भाव-‘‘
भाव एक
प्रारम्भिक
सरल
प्रक्रिया
हैं जो प्राणी
को सुख और
दुःख की
अनुभूति
कराती हैं।‘‘-Uppal (2003) विद्यार्थी
को संगीत को
माध्यम से
अपने मन के भावों
व्यक्त करना
आना चाहिए।
प्रत्यक्षीकरण-‘‘प्रत्यक्षीकरण
भर एक
महत्वपूर्ण, जटिल, प्रत्यक्षीकरण
पर निर्भर
करते हैं।
प्रत्यक्षीकरण
की प्रक्रिया
संवेदना से
प्रारम्भ
होकर,
आवधान से
गुजरते हुए
प्रत्यक्षीकरण
के लक्ष्य तक
पहुँचती हैं।
इसके परिणाम
स्वरूप व्यवहार
होता हैं।‘‘-Moorjani and Jain
(2007)
शास्त्रीय
संगीत में
प्रत्यक्षीकरण
का तात्पर्य
यह हैं कि
विद्यार्थी
द्वारा पहले
से सिखाये गए, राग, गीत, ताल
आदि को पहचान
सके और उसकी
प्रस्तुति भी
दे सके।
रूचि-‘‘रूचि
एक स्थायी प्रवत्ति
या एक सामाजिक
संरचना हैं जो
ध्यान को
जागृत और
स्थापित करती
हैं और उसे
एकाग्र
(स्थिर) रखती
है। जबकि
ध्यान एक मानसिक
क्रिया हैं।
रूचि जन्मजात
भी होती हैं
और अर्जित भी।
ये दोनों ही
मनुष्यों का
ध्यान
वस्तुओं की ओर
आकृष्ट करती
हैं। संगीत
में रूचि का
विशेष स्थान
हैं। जब तक मन
में रूचि न
होगी तब तक
किसी भी
अवस्था में
संगीत सीखा
नहीं जा
सकता‘‘। -Sharma (2000)
चिन्तन-‘‘चिन्तन
ज्ञानात्मक
पक्ष से
सम्बन्धित एक
जटिल मानसिक
प्रक्रिया
हैं। मानव को
प्रकृति द्वारा
दिया गया यह
गुण ही
सम्पूर्ण
वैज्ञानिक
एंव साहित्यिक
प्रगति का
आधार हैं।
कालिन्स तथा
ड्रेवर ने
चिन्तन की
व्याख्या
‘परिस्थिति के
प्रति प्राणी
के चेतन
अभियोजन‘ के
रूप में की
हैं। चिन्तन
समस्याओं का
मानसिक
समाधान है‘‘- Uppal (2003)
विद्यार्थी
द्वारा
सिखायी हुई
चीजो को केवल याद
रखना ही
पर्याप्त
नहीं बल्कि
उसका चिन्तन
भी आवश्यक हैं
जिसके द्वारा
मस्तिष्क में
लगन एंव
प्रगाढ़ता
उत्पन्न होती
हैं।
सीखना-‘‘यह
एक मानसिक
प्रक्रिया
हैं। यह भी दो
प्रकार की हो
सकती है। 1. समझकर 2.
रटने से
सीखना भी
संगीत में
अपना स्थान
रखता हैं जब
तक हम कोई भी
कला को सीखेगे
नही तो वह
हमें कैसे आ सकती
हैं 2
संगीत एक ऐसी
कला हैं जिसको
हम समझ कर ही
सीखते हैं अगर
रटा-रटा कर
सीखा जाए तो
कभी-कभी गलत भी
सीखा जाता
हैं।‘‘- Kalkarni (2004)
शिक्षा
मनोविज्ञान
के प्रत्येक
क्षेत्र में
संगीत की
महत्वपूर्ण
भूमिका रही
हैं। विद्यार्थियों
की रूचि, संवदना
तथा उनकी
प्रवृति आदि
गुणों के
परिपे्रक्ष्य
में
शास्त्रीय
संगीत शिक्षण
की आवश्यकता
पर विशेष
ध्यान दिया
जाता हैं।
उपर्युक्त
सभी मानसिक
प्रक्रियाओें
से यह सिद्व
होता हैं कि
शास्त्रीय
संगीत शिक्षण
का मनोविज्ञान
से बहुत
घनिष्ठ
सम्बन्ध हैं।
REFERENCES
Contribution
of Music to the Development of Human Life, Umashankar Sharma (2001)
Eastern Book Linkers, Delhi, p.150
Developmental
Psychology, Adarsh Kumar Tripathi, Madhusudan Tripathi, (2014),
Omega Publications, New Delhi, pp. 2
General
Psychology, Janaki Moorjani, Meena Jain (2007), Avishkar
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Psychology, Janaki Moorjani, Meena Jain (2007), Modern Book
House, Chandigarh, pp.42
Indian
Music and Psychology, Mrs. Vasudha Kalkarli (2004), Rajasthani
Librarian, Jodhpur, pp.89
Indian
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Teaching and Psychology, Savita Uppal (2003), Modern Book House,
Chandigarh, pp.-12
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Teaching and Psychology, Savita Uppal (2003), Modern Book
House, Chandigarh, pp.48
Psychological
Dimensions of Indian Classical Music, Sahitya Kumar (1999)
Pratibha Prakashan, New Delhi, pp.53
Sangeet
Chintan, Surekha Sinha, (2008), Panchsheel Publications, Jaipur, Vol.112
The
Evolution of Classical Music, Amita Sharma (2000), Eastern Book
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