ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
में
जहाँ एक ओर
शासकीय आदेश व
वैभवता के
दिग्दर्शन
होते है वही
दूसरी ओर इन
कलाओं में
हस्तशिल्पीय
कला का
चरमोत्कर्ष
काल भी देखा
जा सकता है।
जिनकी
कलात्मक
कारीगरी व रूप
सौन्दर्य आज
भी कई कलाओं
के आधार बने
हुये है। जो
कलाएं कभी
शास्त्रीय
नियमों,
आदर्श
मापदंडो व कला
सिद्धांतों
के साथ
सम्पन्न की
जाती थी उनमें
आज पूर्ण
परिवर्तन आ
चुका है। समय के
साथ मनुष्य के
भाव तथा विचार
निरंतर बदलते
रहे है इसीलिए
यह कहना उचित
हो जाता है कि ‘परिवर्तन
ही प्रकृति का
नियम‘ है। एक
निश्चित समय
के बाद
प्रकृति के
रूप परिवर्तन
के अनुरूप ही, कलाओं
का स्वरूप भी
परिवर्तित
होता जा रहा
है। वर्तमान
समय में कई
प्रकार की
कलाओं के रूप, आकार, भाव
आदि
परिवर्तित व
प्रभावित हो
चुके है। नूतन
परिवर्तन और
आपसी
प्रतिस्पद्धाओं
ने हस्तशिल्पी
के हृदयगत
भावों और
विचारों को भी
परिवर्तित कर
दिया है। इस
आधुनिक चित्रकला
का प्रभाव आज
के बनने वाले
हस्तशिल्पों
पर बखूबी देखा
जा सकता है।
आधुनिक
चित्रकला के
प्रभाव से
ओत-प्रोत होकर
आज का
हस्तशिल्पी
प्राचीन
शास्त्रीय
कला मनोभावों
को जैसे भूला
बैठा है, मानो नित
नये रंग व
रूपों का
प्रयोग और
भावों की नवीन
संरचनाओं के
प्रस्फुटीकरण
से पुनः इस
युग का आरम्भ
हुआ हो। हस्तशिल्प, जैसा
कि नाम से ही
स्पष्ट है हाथ
से बनाये जाने
वाले शिल्प
जिनका अपना एक
रूप व आकार
होता है। इन
हस्तशिल्पों
के सृजन की
कला परम्परा
अत्यंत
प्राचीन समय
से चली आ रही
है। जिसके
प्रमाण हमें
सर्वप्रथम
सिन्धु नदी
घाटी सभ्यता
में देखने को
मिलते है।
तत्कालीन समाज
में इनकी
उपयोगिता व
महत्व बढ़ा एवं
इनकी उतरोत्तर
वृद्धि व
विकास होता
गया,
जिससेे समय
के साथ इनका
स्वरूप और भी
निखरता गया।
आज ये
हस्तशिल्प
हमारे बीच कई
रूपों व माध्यमों
में विद्यमान
है जिनका
उपयोग मानव तब
भी अपनी
आवश्यकता के
अनुसार करता
था और आज भी। हमारे
द्वारा
प्रयुक्त
किये जाने
वाले हस्तशिल्पों
के कई रूप
प्रचलित है।
प्रत्येक हस्तशिल्प
का अलग-अलग
उपयोग व महत्व
होता है। घरेलू
उपयोग के
अलावा भी
हस्तशिल्पों
का महत्व साज-सजावट
के रूप में भी
देखा जा सकता
है। प्रारम्भ
में ये
हस्तशिल्प
मिट्टी से ही
बनाये जाते थे
जिन्हे
मनोरंजक
खिलौने के रूप
में प्रयुक्त
किया जाता था, धीरे-धीरे
इनका रूप
परिवर्तित
होता गया और
ये घर की शोभा
बढ़ाने वाले
हस्तशिल्पों
की श्रेणी में
आ गये। समय के
साथ इन
हस्तशिल्पों
का रूप
परिवर्तित व
परिष्कृत होता
जा रहा है, रूप
परिवर्तन व
परिष्कृत की
इस परम्परा का
सम्बन्ध
अत्यंत
पुराना है, आज
भी इस परम्परा
का निर्वहन
करते हुए
हस्तशिल्पों
का सृजन कार्य
किया जा रहा
है। समय की
धारा के साथ
इन
हस्तशिल्पों
के रूपाकार, माध्यम
व सृजन की
शैली भी
परिवर्तित
होती गई। चित्रकला
और
हस्तशिल्पों
का आपस में
घनिष्ठ सम्बन्ध
होने के कारण
भी ये
एक-दूसरे से
सदैव ही प्रभावित
होते रहते है।
जिस प्रकार से
किसी एक कला
पर दूसरी कला
प्रभाव पड़ता
है, ठीक वैसे ही
एक हस्तशिल्प
का दूसरे
हस्तशिल्प पर
भी प्रभाव
रहता है। नित
नये प्रयोग और
नूतन परिवर्तन
की चाह ने, कई
नवीन
माध्यमों, शैलीयों
व रूपाकारों
को जन्म दिया
है। हस्तशिल्पी, हस्तशिल्पों
की डिजाइन, अंलकरण, रंग-रोगन, उनका
आकर्षण व
कलात्मकता
आदि बाजार की
मांग को ध्यान
में रखते हुए
सृजन करता है।
आज हस्तशिल्पी
भी व्यवसायी
की भाँति
ही
प्रतिस्पद्धाओं
से घिर चुका
है। प्रतिदिन
नई बनावट, अंलकरण
व रंगों के
प्रयोगों में
अपने मन-मस्तिष्क
की कल्पनाओें
को मूत्र्त
रूप देने के
लिए श्रमशील
रहता है। पूर्व में
प्रचलित
हस्तशिल्प और
वर्तमान समय
में प्रचलित
हस्तशिल्पों
में कई प्रकार
के अंतर व रूप
वैविध्य
दिखाई देते है
जो कभी सुन्दर, सदाबहार
और शास्त्रीय
कला नियमों पर
आधारित थे, वे
आज कलात्मकता
और आधुनिकता
के रंग में
डूब चुके है।
आज के
हस्तशिल्प
विभिन्न
कलात्मक रूपों
के आधार पर
बनाये जा रहे
है जो कितने
दिनों अथवा
महिनों तक
चलेगें इस
सम्बन्ध में
स्वयं
हस्तशिल्पी
भी मौन है।
बाजारों में
वर्ष के बारह
महिनों की भाँति
हस्तशिल्पों
के रूप
परिवर्तन को
देखा जा सकता
है कब किस
हस्तशिल्प का
रूप बदल जाये
इस सम्बन्ध
में कोई
जानकारी
प्राप्त नही
होती है। हस्तशिल्प
और उनका
माध्यम भी
सदैव
परिवर्तनशील
रहता है।
हस्तशिल्प और
उनका माध्यम
दोनों ही
बाजार की मांग
के आधार पर तय
किये जाते है।
जैसे-जैसे
बाजार की मांग
बदलती है वैसे
ही इनके
माध्यम भी
बदलते रहते
है। ‘‘लोक
दस्तकारी एवं
अन्य कलाओं की
तरह ही ये
प्रदर्शनकारी
कलाएं आज
हमारे देश में
भी लोकप्रिय
हो रही है। यह
अवश्य ही शुभ लक्षण
है परंतु
देखना यह है
कि
पुनर्जागरण
हमारी
सांस्कृतिक
परम्पराओं के
प्रति आस्था के
रूप में प्रकट
हुआ है या
केवल शौक के
रूप में। केवल
शौक के रूप
में प्रविष्ठ
हुई कला सामग्री
का अस्तित्व
स्थायी नही
होता।‘‘Bhanawat (1974) हस्तशिल्पीय
कला के
प्राचीन
स्वरूप
परिवर्तित हो
चुके है।
वर्तमान समय
में इनकी
रेखाएं,
रंग,
रूप,
और भावों पर
आधुनिक
चित्रकला का
प्रभाव पूर्णरूप
से हावी हो
चुका है।
हस्तशिल्पीय
रूप और भाव
कभी बनाने
वाले से लेकर
खरीद्दार तक
एक समान हुआ
करते थे पंरतु
उनके आयाम आज
बदल चुके है।
आधुनिक
चित्रकला के
प्रभाव की लहर
कभी मंद तो
कभी प्रखर रही
है जिसमें
कलाकार के
मन-मस्तिष्क
के भाव और
विचार भी बहते
चले गये। नूतन
कला की चाह, विलक्षण
कला की
कारीगरी और
कलात्मकता ने
हस्तशिल्पीय
कला के मायने
ही बदल दिये
है। राजस्थान
के पश्चिमी
क्षेत्र में
स्थित जोधपुर
जिला भी
हस्तशिल्पीय
सृजन परम्परा
का उन्नत
केन्द्र रहा
है। प्रारम्भ
में जहाँ इस
क्षेत्र में
हाथी दाँत, सीप, बादले, मिट्टी, लकड़ी, धातु
आदि से बने
हस्तशिल्पों
को महत्व दिया
जा रहा था, वही
वर्तमान समय
में पेपरमेशी, चर्म, लौह
चद्दर एवं
लकड़ी व लौह
चद्दर द्वारा
संयुक्त
माध्यमों से
बने
हस्तशिल्पों
को भी महत्व दिया
जा रहा है।
‘‘वुडन
हैण्डीक्राफ्ट
के अनुकरण में
ही आयरन
हैण्डीक्राफ्ट
का काम जोधपुर
में बडे़
पैमाने पर
होता है। इस
कार्य के लिये
लौहा स्थानीय
बाजार से ही
क्रय किया
जाता है। आयरन
हैण्डीक्राफ्ट
सामग्री में
पशु-पक्षियों
की आकृतियाँ, टेलिफोन
स्टेण्ड, केण्डल
स्टेण्ड, लैम्प
फोटो फ्रेम
आदि विविध
सामान बनाये
जाते है।‘‘Gupta (2013) जहाँ एक ओर इन
हस्तशिल्पों
के सृजन से
व्यक्ति जीवन
में दैनिक
आवश्यकताओं
की पूर्ति की जाती
है तो दूसरी
ओर ये
हस्तशिल्प
प्राचीन परम्पराएं, कला, संस्कृति
आदि को जीवित
रखने के लिए
प्रमुख साधन
कहे जा सकते
है।
हस्तशिल्पीय
कला-कौशल व उनकी
तकनीकी
दक्षता,
ज्ञान की
अविरल धाराएं
है जो
प्रत्येक
संस्कृति में प्रवाहित
होती रहती है।
ज्ञान की ये
धाराएं व्यक्ति
जीवन में
विकास के नवीन
अवसर प्रदान करती
है जिनका
प्रवाह कभी
मंद तो कभी
प्रखर गति पर
आधारित होता
है। इन
हस्तशिल्पों
के सृजन से न
केवल
हस्तशिल्पीयों
को प्रसिद्धि
मिलती है वरन्
गाँव हो या
शहर जिस किसी
भी स्थान पर
सृजित किये
जाते है उस
क्षेत्र अथवा
स्थान की भी
विशेष ख्याति
बढ़ जाती है। इसी
संदर्भ में
लकड़ी व लौह
चद्दर के
समन्वय से
जोधपुर जिले
के मसूरिया
क्षेत्र में
दीनानाथ जी
लौहार व उनके
पुत्र अरूण, सुधीर
के अलावा भी अन्य
कई लोगों के
द्वारा कार्य
किया जा रहा
है। इस माध्यम
द्वारा विविध
प्रकार के
हस्तशिल्पों
का सृजन किया
जा रहा है
जिसके
अन्तगर्त लकड़ी
और लौह चद्दर
से बने
हस्तशिल्पों
को अलग-अलग
एवं संयुक्त
रूप में भी
देखा जा सकता
है। यहाँ के
हस्तशिल्पियों
की पारंगता
‘‘कला और कौशल
दोनों ही
क्षेत्रों
में रही है, जिसकी
रमणीय
कारीगरी का
लोहा आज पूरा
विश्व मानता
है।‘‘Gehlot (1996) इन
माध्यमों के
आपसी समन्वय
से निर्मित
हस्तशिल्प
कलात्मकता के
नवीन रूपों की
कल्पनाओं को
साकार कर रहे
है। कई प्रकार
के रूप व आकारों
को बडे़ ही
सुन्दर एवं
कलात्मक
स्वरूपों में
बनाया जा रहा
है। इस कार्य
में लकड़ी और
लौह चद्दर 80:20 का भाग को
काम में लिया
जाता है। 80
प्रतिशत भाग
लकड़ी से बना
होता है जिस
पर 20
प्रतिशत लौह
चद्दर से बने
भाग जोड़ते हुए
हस्तशिल्प को
मूर्त रूप
दिया जाता है।
हस्तशिल्प पर
जोड़े गये 20
प्रतिशत वाला
भाग,
बनाये जा रहे
हस्तशिल्प की चोंच, मुहं, कान, गर्दन, पूँछ, पाँव, और
खड़े रखने के
लिए स्टेण्ड़
आदि के रूप
में देखा जा
सकता है।
जिनमें इनको
दो स्वरूपों
में देखा व
खरीदा जा सकता
है पहला किसी
स्थान विशेष
पर रखने हेतु
एवं दूसरा
दीवार पर
लटकाने अथवा
टांगने के लिए।
इसके अलावा
केवल लौह
चद्दर एवं
लकड़ी से भी कई
प्रकार के
आकर्षणयुक्त
हस्तशिल्पों
को बनाया जा
रहा है। हस्तशिल्पों
के सृजन का
कार्य लौह
चद्दर से बने
फर्में के
आधार किया जाता
है। एक सेम्पल
मॉडल के आधार
पर फर्मे को
लौह चद्दर पर
रख कर अलग-अलग
रूपाकरों के
निशान बनाते
हुए कटिंग की
जाती है।
कटिंग किये रूपाकारों
को एक छोटी
वैल्डिग मशीन
के द्वारा वैल्ड
किया जाता है।
वैल्ड किये
जाने के बाद हस्तशिल्प
की फिनिशिंग
की जाती है
तत्पश्चात्
उसे रंग-रोगन
के लिए अन्य
हस्तशिल्पी
के पास भेज
दिया जाता है
जहाँ पर
हस्तशिल्प को
कलात्मक
बनाया जाता
है। उपरोक्त
समस्त प्रकार
की प्रक्रिया
में डिजाइन
सम्बन्धी
कार्य व सेम्पल
मॉडल का कार्य
हस्तशिल्पी
अपने
मन-मस्तिष्क
की कल्पनाओं, बाजार
में प्रचलित
डिजाइन व व्यवसायी
के द्वारा दी
डिजाइन को
ध्यान रखते हुए
करता है। य हाँ पर
बनाये जा रहे
हस्तशिल्पों
को विषय वस्तु
के आधार पर
मुख्यतः चार
वर्गों में
विभाजित किया
जा सकता है। 1) आध्यात्मिक
रूप ·
श्री गणेश, श्रीकृष्ण
व हनुमान 2)
प्राकृतिक
रूप ·
पेड़, शाखाएं 3)
मानवाकृतियाँ ·
संगीतकार
पुरूष ·
कार्यरत व
नृत्यरत
स्त्रियाँ
आदि। 4)
पशु-पक्षी
·
हाथी, घोङे
·
चिड़ियाँ, मोर
आध्यात्मिक
रूप मनुष्य के
जन्म के साथ
ही ईश्वरीय
सवौच्च सत्ता
की उपस्थिति
को
आध्यात्मिक
रूपों में
महत्व दिया गया
है जिनका
प्रारम्भ
प्रतीक,
चित्र व
मूर्ति के रूप
में हुआ।
आधुनिक चित्रकला
में भी
चित्रकारों
ने
आध्यात्मिक
चित्रण का
कार्य किया जो
कही न कही
इनसे
प्रभावित रहे
है। आधुनिक
चित्रकला का
प्रभाव
हस्तशिल्पों
पर पड़ा और पूर्व
में प्रचलित
परम्परा का
अनुसरण करते
हुए
हस्तशिल्प
सृजित किये जा
रहे है।
हस्तशिल्पों
के सृजन में
देव रूप
प्राथमिकता
लिए हुए है।
जिनमें श्री
गणेश,
श्रीकृष्ण व
हनुमान के
विभिन्न
स्वरूपों के दर्शन
किये जा सकते
है। लौह चद्दर
से बने होने
के बावजूद भी
हस्तशिल्प
सौम्यता व
कलात्मकता से
परिपूर्ण है
जो अनायास ही
लोगों में
आकर्षण का
केन्द्र बन
जाते है। इनकी
खरीद व घरों
में साज-सजावट
ही व्यक्ति के
लिए
आध्यात्मिक
आनन्द की
प्राप्ति का इस्त्रोत
रहा है। प्राकृतिक
रूप प्राणवायु
संचार करने
वाली प्रकृति
का मानव के
साथ अत्यंत
घनिष्ठ
सम्बन्ध रहा
है। ऐसे में
मानव के
द्वारा
प्रकृति की
उपेक्षा भला
कैसे की जा सकती
है, जो
हमें कहीं न
कहीं प्रकृति
से प्रेम व
इससे जुड़े
रहने का संदेश
देती है। इसी
सम्बन्ध को ध्यान
में रखते हुए
कुछ
हस्तशिल्पों
में प्रकृति
के अंश के रूप
में पेड़ व उसकी
शाखाओं को
लयबद्ध रूप
में बनाया गया
है। ये
हस्तशिल्प
लौह की चद्दर
पर रंगों की
कुशल कारीगरी
से बने है फिर
भी इनका
चाक्षुष
सौन्दर्य हमें
तेज धूप में
भी स्वच्छ व
निर्मल छाँव
का अहसास
करवाते है
मानो जैसे हम
प्रकृति की गोद
में ही बैठे
है। इन
हस्तशिल्पों
की बनावट
उपयोग की
दृष्टि से
उपयोगी और
कलात्मक है, जिन्हे
घरों में
साज-सजावट के
उद्देश्य
हेतु दीवारों
पर टांगा जाता
है।
मानवाकृतियाँ प्राकृतिक
रूप के अनुरूप
ही मानवीय
मूल्यों को
महत्व देते
हुए
हस्तशिल्पों
में मानवाकृतियाँ
के विभिन्न
स्वरूपों को
आकार दिया गया
है। इन
हस्तशिल्पों
के अन्तगर्त
मानवाकृतियों
में संगीतकार
को बनाया गया
है जिसमें
पुरूषों को
विभिन्न
वेशभूषाओं
में संगीत के
वाद्य यंन्त्रो
के साथ
अलग-अलग रूपों
में दर्शाया
गया है। इसी
क्रम में
दैनिक कार्य
करते हुऐ व
नृत्यरत
स्त्रियों का
बहुत ही
सुन्दर सृजन
किया गया है, जिसमें
महिलाओं को
अपने दैनिक
कार्य करते हुए
एवं नृत्य की
मुद्राओं में
अत्यंत ही
कलात्मक एवं
मनमोहक रूप
में बनाया गया
है।
पशु व
पक्षी रूप प्राकृतिक, आध्यात्मिक
रूप और
मानवाकृतियों
के समान ही प्रकृति
में स्वन्छद
विचरण करने
वाले पशु व पक्षियों
को भी महत्व
देते हुए इनका
भी सृजन किया
गया है। पशु
रूप में हाथी, घोड़े, ऊँट, भैस
आदि पशु रूपों
को
हस्तशिल्पों
के रूप में
किसी स्थान
विशेष पर रखने
के उद्देश्य
से बनाया जा
रहा है। लौह
चद्दर एवं
लकड़ी व लौह
चद्दर के संयुक्त
रूप में बने
हस्तशिल्प
कलात्मक व
बेजोड़ है।
सृजन के इसी
क्रम में
पक्षियों में
मोर की सुन्दरता
व चिड़ियों की
चहचहाट के रूप
में इन
हस्तशिल्पों
का सौन्दर्य व
आकर्षण,
कलात्मकता
से परिपूर्ण
है। कुंजी
धारक मोर व चिड़ियाँ
के रूप में ये
हस्तशिल्प
किसी स्थान
विशेष पर
टांगने की
दृष्टि से
खरीदे जाते
है। जहाँ ये हस्तशिल्प
प्रकृति में
अपने महत्व को
समझाते है वही
घरों में इनकी
उपयोगिता, साज-सजावट
व शोभा बढा़ने
के भाव को भी
पूरित करते है।
जिस प्रकार
चित्र में
‘अनुभूति‘ तथा
उसकी ‘अभिव्यंजना‘
ये दो चीजें
मुख्य रूप से
अभिव्यंजित
होती है जो
लोगों की
परिवर्तनशील
रूचि के सामने
भी अपनी
श्रेष्ठता को
बनाएं रख सकता
है, इसी
प्रकार से
हस्तशिल्प
में निहित
सौन्दर्य और
उसका कलात्मक
स्वरूप ही है
जो लोगों में लम्बे
समय तक आकर्षण
का केन्द्र
बनाये रखता है।
आज कला के नए
मापदंड,
नई
परिभाषाएं और
नवीन स्वर
चारों ओर उभर
रहे है।
नये-नये वादों
के प्रभाव ने
हस्तशिल्पी
की
अभिव्यक्ति
को अनेक
माध्यमों के
द्वारा नई
परिभाषा
प्रदान की है।
आज
हस्तशिल्पी
आकार,
रंगों के आकर्षण-विकर्षण
और
चक्षुप्रिय
सौन्दर्य व कलात्मकता
की ओर अधिक
आकर्षित हो
रहा है। हस्तशिल्पियों
सें
भेंटवार्ता
द्वारा यह जानकारी
प्राप्त हुई
कि इस जोधपुर
के मसूरिया क्षेत्र
में लगभग 30
से 35
परिवारों के
लोग काम कर
रहे है। सभी
का हस्तशिल्पों
से सम्बन्धित
अपना अलग-अलग
काम है जिनमें
कुछ महिला
हस्तशिल्पी भी
है जो हमारे
इस कार्य में
फर्में से
रूपाकार के
निशान व उनकी
कटिंग करने
में सहायता
करती है।
हस्तशिल्पों
के बदलते रूप
के पीछे उन्होंने
बताया कि
बाजार की मांग, आपसी
प्रतिस्पद्र्धा, नूतन
परिवर्तन, आकर्षण
व नवीन प्रयोग
आदि तत्वों का
सम्मिलित रूप
देखा जा सकता है।
इन्हीं
तत्वों के
कारण बाजार
में हस्तशिल्पों
की मांग बढ़ती
है जिससे
हस्तशिल्पियों
में आपसी
प्रतिस्पद्र्धाएं
प्रारम्भ हो
जाती है और
नित नये
प्रयोगों के
द्वारा
नये-नये हस्तशिल्पों
का सृजन करते
है। ‘‘जनमानस
की रूचि, उनकी मांग
के आधार पर ही यहाँ हस्तशिल्प
उत्पाद
निरतंर बनाए
जाते रहे है।
आज जीवन के वैभव
के साथ ही, रोजमर्रा
के उपयोग से
जुड़ी
बहुतेेरी
हस्तकला
वस्तुओं में
कुशल
कारीगरों की
लगन,
निष्ठा एवं
श्रम
सम्बन्धी
उपयोगी
उत्पादन केवल
कुछ लोगों के
मन बहलाव अथवा
वैभव का
प्रतीक न बनकर
जन-जन के लिए
उपयोगी साधन
भी बने हुए है।
‘‘Vyas (2016) इन्द्रधनुषीय
रंगों की
छटाओं से
ओत-प्रोत ये हस्तशिल्प
आधुनिक कला के
‘रूप व प्रभाव‘
से प्रभावित
होकर विलक्षण
रूप धारण कर
लेते है। इसी
रूप की ओर लोग
आकर्षित होते
है जिससे
हस्तशिल्पी
के कार्य को
गति और बल
मिलता है, बाजार
की मांग बढ़ती
है, और
एक अदृश्य चेन
के रूप में
कार्य का
सम्पादन होता
रहता है।
सौन्दर्य और
कलात्मक
कारीगरी के
रूप में यह
अदृश्य चेन
हस्तशिल्पीयों
के हाथों में
ही होती है।
जिसके लिए वे
सदैव ही प्रयासरत
रहते है और कई
प्रकार के
नवीन
माध्यमों के
द्वारा नित
नये प्रयोग की
नूतन कड़ियों
को जोड़ने का
प्रयास करते
हुए इसे कभी न
टूटने वाली चेन
बना देते है। हस्तशिल्प
सृजन की इस
परम्परा में
कई हस्तशिल्पी
पूर्व में
प्रचलित
हस्तशिल्प का
वर्तमान
हस्तशिल्पों
के साथ समन्वय
कर रहे है तो
कई
हस्तशिल्पी
चित्रकलाओं
की ओर उन्मुख
हो रहे है।
इनके कला
प्रभाव,
भाव व
रूपाकारों को
अपनाते हुए
हस्तशिल्पों का
सृजन कर रहे
है। वर्तमान
समय में ऐसी
कई चित्रकलाओं
का प्रभाव
हस्तशिल्पों
पर देखा जा सकता
है जिसमें
सर्वाधिक
प्रभाव
आधुनिक चित्रकला
का देखने को
मिलता है।
‘‘प्राचीन काल
से आधुनिक काल
तक मानव जीवन
से जुड़ी इस
कला का महत्व
यथावत् है। इस
कला के
अन्तर्गत
निर्मित वस्तुओं
में मौलिकता
का ध्यान न रख
बनावट एवं तकनीकी
दक्षता का
ध्यान दिया
जाता है। मूलतः
यह शैली
प्रदान कला
है।‘‘Gupt (2015) इसमें कोई
संदेह नही कि
शनैः शनैः सभी
आधुनिक कला की
ओर अग्रसर
होते जा रहे
है। आज
हस्तशिल्पी
और हस्तशिल्प
दोनों ही आधुनिक चित्रकला
के रंगों की
सतरंगी छतरी
पकडे़ हुए है।
लकड़ी,
लौह चद्दर, पेपरमशी
आदि कई अन्य
हस्तशिल्प आज
इन्हीं के रंगों
और भावों से
ओत-प्रोत है।
इन हस्तशिल्पों
के रंगों की
चमक और इनकी
कलात्मकता
अनायास ही
आकर्षित करती
है। आम आदमी
से लेकर
व्यक्ति विशेष
तक इनको पाने
की लालसा रखता
है। लोगों का
यही आकर्षण और
लालसाएं ही है
जो इस क्षेत्र
में आपसी हौड़
और बाजार को
गर्म करते है
जिससे प्रतिदिन
इनकी मांग
बढ़ती रहती है।
यही बढ़ती हुई
मांग ही है जो
आधुनिक
चित्रकला के
प्रभाव को कायम
रखती है। ‘‘कोई
वस्तु कितनी
ही उत्कृष्ट
क्यों न हो, बार-बार
उसी की
पुनरावृत्ति
से मानव हृदय
शीघ्र ही ऊब
जाता है।
अभिरूचियाँ
बदलती रहती है, और
सौन्दर्यदृष्टि
भी सदा एक सी
नही रहती, बदलती
जाती है। वही
रेखाएं,
वही रंग, किन्तु
उनके नित्य
नये ढंग से
किए गए प्रयोग
एवं सांमजस्य
से कलाकार
नित-नूतन
आकर्षण उत्पन्न
करते है।
आधुनिक कलाकार, वैज्ञानिक
के समान, एक दृष्टा
होता है और
अपनी कल्पना
की उड़ानों के
अनुसार नए-नए
काल्पनिक
स्वरूपों को
जन्म देता है।
Vaajpai (2012) बाजारों
में विविध
प्रकार के
हस्तशिल्प
देखने को
मिलते है। आज
का
हस्तशिल्पी
इस वातावरण को
आत्मसात करने
के लिए तैयार
हो चुका है।
वह अब वह
प्रत्येक
क्षेत्र में
अपने अलग
अस्तित्व की
पहचान के लिए
निंरतर
प्रयत्नशील
है और दिन
प्रतिदिन कुछ
न कुछ नवीन
करने के लिए
प्रयासरत भी
रहता है। आज
हस्तशिल्पी
रूढ़िवादिता
और परम्परा के
बन्धनों को
तोड़ते हुए नित
नये प्रयोगों की
ओर अग्रसर
होता जा रहा
है। वर्तमान
समय में
प्राचीन
हस्तशिल्पीय
कला परम्परा
जन सामान्य से
दूर हटती हुई
नजर आ रही है।
फिर भी कुछ हस्तशिल्पीयों
के द्वारा
प्राचीन
कलाओं से प्रेरणा
तथा
परिवर्तित
होते आधुनिक
परिवेश का
संश्लेषण
करते हुए
विविध
माघ्यमों, उपकरणों
का प्रयोग, नये-नये
वादों के
प्रभाव के साथ
पुरातन व आधुनिकता
का मेल आदि
कार्य किया जा
रहा है मानों
हस्तशिल्पीय
कला के
क्षेत्र में
नवीन क्रान्ति
का सूत्रपात
किया जा रहा
हो। 2.
निष्कर्ष यही कहा
जा सकता है कि
जब प्राचीन
कलाओं के भाव, नवीन
रूप सृजन की
प्रेरणाएं और
चेष्टाएं भी कलाओं
पर अपना
प्रभाव डालती
है तो
हस्तशिल्प इनसे
कैसे अछूते रह
सकते है।
चित्रकला और
हस्तशिल्पों
का आपस में
घनिष्ठ
सम्बन्ध होने
के कारण समय-समय
पर ये
एक-दूसरे से
प्रभावित
होते रहते है जो
कि एक स्वाभाविक
प्रक्रिया
है। राजस्थान
में मानव सभ्यता
के काल से ही
हस्तशिल्प के
प्रमाण मिलते
है। मानव की
विकास की
यात्रा के साथ
ही राजस्थान
में
हस्तशिल्प
फला फूला है, इतना
ही नहीं, अपने
बहुविविध
स्वरूप के
कारण
सम्पूर्ण राजस्थान
को ही
हस्तशिल्प का
संग्रहालय
कहा जा सकता
है। आधुनिक
चित्रकला के
प्रभाव के कारण
व्यवसायिक
पक्ष को
केन्द्रित
किया जा रहा है, आज
इनकी सोच
बुद्धिजीवी
वर्ग की ओर
गतिशील हो रही
है। अब
हस्तशिल्पी
का ध्येय
परिवर्तित हो
चुका है और आज
इनकी ये कलाएं
भी आधुनिक
चित्रकला के
रंग,
रूप और भावों
का आवरण ओढ़ चुकी
है। Refrences Bhanawat, M. (1974). Lok Kala Mooly Aur Sandarbh [Folk Art Values And References] (1st ed.). Udaipur : Bharatiya Lok Kala Mandal. Gehlot, S. S. (1996). Cultural Splendor of Jodhpur : Rajasthani Granthagar, Jodhpur (1st ed.). Gupt, H. (2015). Visual Dictionary : Uttar Pradesh Hindi Institute, Lucknow (1st ed.). Gupta, M. (2013). District Wise Cultural And Historical Study of Jodhpur Division : Rajasthani Granthagar, Jodhpur (6th ed.). Vaajpai, R. (2012). Aesthetics : Madhya Pradesh Hindi Granth Academy, Bhopal (6th ed.). Vyas, R. K. (2016). Cultural Rajasthan : Rajasthan Hindi Granth Academy, Jaipur (3rd ed.).
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