ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
तत्कालीन
लोकोत्सवों
पर
गीत-वाद्य-नृत्य
की त्रिवेणीं
प्रवाहित हो
उठती थीं। मगध
में होने वाले
ऐसे ही
उत्सवों का
चक्षुर्वै
सत्यम् निरूपण
फाह्यान, के
यात्रा-विवरण
में पाया जाता
है। अशोक के
अभिलेखों से
प्रमाणित है
कि ऐसे समारोह
नियमित रूप से
आयोजित होते
थे। ऐसे ही
उत्सव पर
राजगृह में ‡ŒŒ
नर्तकियों के
निमंत्रित
होने का
उल्लेख विशुद्धिमग्ग
गं्रथ में
पाया जाता है। इस काल के
संगीत में
जीवन की व्यापकता
का समावेश
अधिक हो गया
था। इस समय में
वही संगीतज्ञ
सफल समझा जाता
था, जो
कि अपने संगीत
प्रदर्शन से
मानव को समस्त
विकारों से
ऊपर उठा सके।
इस काल में
वीणा पर ही गायन
होता था।
शास्त्रीय
संगीत
प्रचलित था। बौद्ध
विहारों में
आराधना के
लिये नियुक्त
कलाकारों को
शासन की ओर से
द्रव्य दिया
जाता था।
वीणा-वादकों
की
प्रतियोगिताएँ
हुआ करती थीं
जिनमें
विजेता को
पुरस्कार तथा
राजाश्रय प्राप्त
होता था।
नालंदा,
विक्रमशिला
तथा
तदन्तपुरी
जैसे
विश्वविधालयों
में भी
गान्धर्व की
स्वतंत्र
फैकल्टी थीं। शारंदेव
ने
संगीत-रत्नाकर
के अध्याय ६
में बौद्धकाल
में संगीत की
शिक्षा देने
की जो पद्धति
बताई थी उसमें
उन्होनें
(गायन को वर्ण)
गायन के कार्य
को वर्ण अथवा
रंग का नाम
दिया था। इसके
चार विभाग
किये गये थे -
स्थायी,
आरोही,
अवरोही, और
संचारी। बौद्ध काल
में निम्न
प्रकार के
भक्ति-गीत अधिक
प्रचलित थे -
भजन,
कीर्तन, संकीर्तन, नगर
कीर्तन,
माहिमा
(पंजाबी गीत), कव्वाली।
इनका
प्रदर्शन
बौद्धकालीन
चित्रों में
किया गया है। बौद्ध काल
में नृत्य तथा
गायन का
अभूतपूर्व विकास
हुआ। बौद्ध
भिक्षु
देश-विदेशों
में गाते, नाचते
और संगीत
वाद्य बजाते
हुए धर्म
प्रचार किया
करते थे। उनका
प्रमुख
उद्देश्य
महात्मा गौतम
बुद्ध के
उपदेशों की
शिक्षा देना
और उनका
प्रचार करना
था। भीड़ का
धान आकर्षित
करने के लिये
उन्होंने
नृत्य-गायन का
मार्ग अपनाया। इस काल
में भगवान
बुद्ध के
समस्त
सिद्धातों को
गीतों की
लड़ियों में
पिरो दिया
गया। गाँवों और
नगरों में
सुन्दर ढंग से
गायन करके
सुप्त जनता को
जागरण का पथ
दिखलाया गया।
जातकों में नृत्य
का उल्लेख कई
स्थानों पर
मिलता है। इसी
काल में बनारस
के समीप रहने
वाले एक नर्तक
की भी कथा
प्रचलित है। इस काल
में गौतम
बुद्ध के
आदर्श-सम्मान
में अनेक
सुन्दर गीतों
की रचना हुई
इसी संदर्भ
में लंकावतार-सूत्र
में वर्णित है
कि भगवान
बुद्ध के
दर्शन होने पर
रावण ने अपने
स्कन्ध से
लटकती हुई
वीणा से
महासुरों से
युक्त
गाथा-गान आरम्भ
किया।
वीणा-वादन
इंद्र नीलमणि
दण्ड से किया
जा रहा था तथा
उस पर
स्वरावलि का
वादन किया जा
रहा था - षड़ज, ऋषभ, गांधार, धैवत, निषाद, मध्यम
तथा कैशिक। बौद्ध
भिक्षुओं ने
प्रारम्भ में
ग्राम मूच्र्छनाओं
के आधार पर
ध्वनि की रचना
की, किंतु
कुछ समय
उपरांत
उन्होंने उन
मूच्र्छनाओं
का जाति-गायन
के रूप में
प्रचार व
प्रसार किया
जो कि काफी
समय तक
प्रचलित रहे।
उन्होंने
श्रुति
संख्या के
आधार पर १९
विकृत स्वरों
का भी
आविष्कार
किया और लगभग
प्रथम
शताब्दी में
१२ स्वरों को
आरम्भ किया।
उसके उपरांत
उन्होंने
मानव के
आत्मोत्थान
पर उपदेश देना
आरम्भ कर दिया
जिसके लिये
उन्होंने
राग-गायन को
जन्म दिया। यह
कार्य कई
शताब्दियों
में पूरा हुआ। बौद्ध
धर्म के
प्रचारकों ने
संगीत के
माध्यम से काम, क्रोध, लोभ, मोह
और अहंकार पर
बल दिया।
उन्होंने इन
दोषों को
समझाने के
लिये चार
हाथों को दांई
ओर काम,
क्रोध,
लोभ और मोह को
प्राप्त करने
के लिए माना
था। उन्होंने
राग रागिनी का
भी विकास
किया। बौद्ध
धर्म के पालि
त्रिपिटक
ग्रंथों में
संगीत के लिये
‘गांधर्व‘ तथा
‘शिल्प‘
संज्ञाओं का प्रयोग
हुआ है।
यद्यपि बौद्ध
धर्म की
हीनयान धारा
में भिक्षुओं
के लिये संगीत
सर्वदा निद्धि
माना गया था‘
तथापि पालि
त्रिपिटकों
में गाथा-गायन
का उल्लेख
प्राप्त होता
है। ये गाथाएँ
महात्मा
बुद्ध के जीवन
चरित्र की
पवित्रताओं
की
प्रशस्तियों
के रूप में
गाईं-बजायीं जाती
थीं। इसी काल
में थेरीगाथा
की रचना इुई, जो
कि बौद्ध
भिक्षुओं के
भाव-प्रवण
गीतों का संग्रह
है। यह एक
संगीतमय
काव्य-संग्रह
है। इसमें ५२२
गीतों का
संग्रह है। यह
ग्रंथ भिक्षुणिओं
के द्वारा ही
रचा गया है और
ये गीत राग-रागनियों
में आबद्ध है। इस काल के
जीवन में
संगीत का इतना
प्रमुख स्थान
था कि एक
साधारण
दरिद्र लड़की
भी गा-गा कर
जलाने के लिए
उपवन में ईंधन
एकत्र करती
थी। वीणा की
तंत्री और गान
के स्वरों में
मधुर सामंजस्य
रहता था - ”तन्तिस्सरेण
गीतस्सरम्
गीतस्सरेण
तन्तिस्सरम्
अनतिक्कमित्वा
मधुरेण सुरेण
गायि“ (जातक
द्वि. पृ. ३२९, तृ.
पृ. १८८)।
वाद्यों के
लिये प्रायः
‘तुरीयानि‘
शब्द का
प्रयोग मिलता
है। बौद्ध
साहित्य में
तत्,
वितत,
घन तथा सुषिर
इन चतुर्विध
वाद्यों का
प्रचुर उल्लेख
पाया जाता है।
तत् वाद्य के
अन्तर्गत
वीणा,
परिवादिनी, विपंची, वल्लकी, महती, नकुली, कच्छपी
तथा
तुम्बवीणा का
नाम उपलब्ध
है। अवनद्ध
वाद्यों में
मृदंग,
पणव,
भेरी,
डिन्डिम तथा
दुंदुभि का
उल्लेख
जातकों में अनेक
बार हुआ है।
घन वाद्यों
में घण्टा, झल्लरी, तथा
कांस्यताल का
नाम है। सुषिर
वाद्यों में शंख, तूर्य, कुराल, श्रृंग
आदि का उल्लेख
है। बौद्ध
धर्म प्रचारक
और संगीतकार
देश में समूहों
में भ्रमण
किया करते थे।
उनके धार्मिक
कार्यक्रमों
को संकीर्तन
कहा जाता था।
यह समूह गायन
हारमोनिक
होता था।
प्रत्येक
गायक वृंद को
आठ तार की
वीणा ‘जिसे
हार्प कहा
जाता था; दी जाती
थी और उन्हें
यह निर्देश
दिया जाता था
कि भ्रमण काल
में यदि उनकी
वीणा
स्वर-विहीन हो
जाती है, तो वे
अपनी वीणा को
जंगली
जानवरों और
पशु-पक्षियों
की ध्वनि से
स्थापित कर
लें। क्योंकि
उनकी बोलियाँ
मनुष्य की
बोलियों से
मिलती-जुलती
हैं। आचारंग
सूत्र के २, ३, ४
से पता चलता
है कि वेणु
(बांसुरी) का
इस काल में
पर्याप्त
प्रचार था।
भारहुत और
साँची के स्तूपों
पर एक साथ दो
वेणु बजाने
वालों के
चित्र उद्धृत
हैं। बुद्धचरित
से स्पष्ट है
कि तत्कालीन
अन्तःपुरों
में महती वीणा, मृदंग, पणव, तूर्य, वेणु
आदि वाद्यों
का वादन तथा
गायन
मनोरंजनार्थ
किया जाता था।
पितृपुत्रसमागम
नामक कथा में
उल्लेख है कि
बुद्ध के
जन्मोत्सव पर
पाँच सौ
वाद्यों का
वृंदवादन हुआ
था। एस. बील ने
अपने ग्रंथ ‘दी
रोमांटिक
लीजेंड ऑफ़
शाक्य बुद्धा‘
में लिखा है कि राजा
शुद्धोधन ने
गौतम को
वैराग्य से
विमुख करने के
लिये
राजप्रासाद
के अन्तःपुर
में
सहस्त्रों
वाद्यों को
एकत्र किया
था। इसके
अतिरिक्त
नृत्य और गान
को भी
सम्मिलित
किया था। बौद्धकाल
में नाटकीय
प्रदर्शन में
रागों के नाम
पर बहुत-सी
धुनें नाटक की
विषय-वस्तु के
आधार पर
निकाली जाती
थीं। अतिया
बेगम ने अपनी
पुस्तक ‘भारतीय
संगीत [Music of India]^ में
एक पुस्तक का
संदर्भ दिया
है। इस पुस्तक
को अठारहवीं
शताब्दी में
ईरान में लिखा
गया था। इस
पुस्तक में
बौद्ध
संगीतकारों
के विवेक तथा
ज्ञान पर
प्रकाश डाला है।
उन्होंने
भावी संतति के
लिये संगीत की
धुनों का अपार
भंडार छोड़ा
है। संसार का
कोई भी देश
संगीत के
क्षेत्र में
इसकी तुलना
नहीं कर सकता। इस काल
में
अभिनयकर्ता
रंगमंच पर आने
से पूर्व आलाप
गायन किया
करते थे। इस
प्रकार वे
अभिनय से
पूर्व अपनी
कला का परिचय
दिया करते थे। बौद्धकाल
में नाटकों का
प्रदर्शन मंच
पर किया जाता
था। इन नाटकों
के द्वारा
कहानी की कथावस्तु
को मंच पर
दिखाया जाता
था। ट्यूस्ट
और डिस्को
नृत्य भी किया
जाता था। इस
समय मंच पर अभिनय
के समय जो
वाद्य यंत्र
बजाये जाते थे
उनमें भूमिं-दुंदुभि, डफ-डमरू, ताशा, मृदंग, तुर्री
और वींणा
मुख्य थे।
बौद्धकालीन
विभिन्न
चित्रों में
इनका
प्रदर्शन
किया गया है। इस काल के
संगीत के विषय
में
सुप्रसिद्ध
संगीत
शास्त्री
अमलदास शर्मा
का यह कथन
अत्यंत महत्वपूर्ण
है - ‘शिल्पियों
को समाज की
मुख्य घटनाओं
का चित्र आंकने
के लिये
राजाज्ञा
होती थी।‘ अजातशत्रु
का बुद्ध
दर्शन के लिये
गायन-वादन करते
हुए जाना और
सम्राट अशोक
की राम-ग्राम
यात्रा आदि
घटनाएं संगीत
की दृष्टि से
विशेष उल्लेखनीय
हैं। उपासना
दृश्यों में
मानव के अतिरिक्त
यक्ष,
नाग,
अप्सरा, किन्नर
तथा
गन्धर्वों को
संगीत का
उपादान बनाया
गया है।
बौद्धकालीन
समाज में ‘बुद्धं
शरणं
गच्छामिं‘, ‘संघ
शरणं
गच्छामिं‘
का नांद, जो कि
लयबद्ध
संरचना के रूप
में घोषित
किया गया था, वह
सैकड़ों
वर्षों तक
गुंजायमान
रहा। बंगाल के
चर्चागीत व
बृजगीत आदि
सन्यासियों
के लिये आचरण
एवं नियम की
वाचक गाथाएं
थीं।
सांयकालीन
अन्धकार के
समान ये
प्रत्येक गीत
रहस्यमय होता
था।
वर्तमानकाल
में ये
गीत-रीतियाँ
अप्रचलित हैं, किंतु
अनेक बौद्ध
ग्रंथों में
इनका उल्लेख मिलता
है। अतः
निष्कर्षतः
कहा जा सकता
है कि बौद्ध
साहित्य एवं
कला-कृतियों
के माध्यम से
इस युग में संगीत
का
प्रचार-प्रसार
मानव-कल्याण, आत्मोत्थान
तथा जनता की
भलाई के लिए
हुआ। स्वयं
महात्मा
बुद्ध ने
नृत्य में
विलासपूर्ण अंग-प्रदर्शन
तथा निम्न
स्तर के
मनोरंजन हेतु संगीत
को मान्यता नहीं
दी। ऐसे संगीत
को सर्वथा हेय
समझा गया।
परंतु संगीत
को पूजा के
लिये अवश्य
मान्यता दी
गई। ‘सद्धर्मपुण्डरीक‘
में संगीत का
अधिकांश
उल्लेख पूजा
के उपकरण रूप
में हुआ है।
बौद्ध युग का
समाज संगीत के
आध्यात्मिक
सौन्दर्य से
पूर्णतः
परिचय प्राप्त
कर चुका था।
इसीलिये यह
काल संगीत की
दृष्टि से अत्यंत
समृद्धिशाली
रहा है।
स्वामी
प्रज्ञानानंद
जी ने अपने
उद्गार इस
प्रकार दिए
हैं - "There were two principal tunes Bodhisattva and Bairo, which were afterwared introduced in Japan by an Indian Brahmin named
Bodhi in eighty century A.D. the tune bodhi sattava
was prescribed exclusively for the Buddhist Bhikhus
in religious functions and perhaps this name of tune was given after the name
of the Loard Buddha or the Brahmin Bodhi. As regards
the tune Bairo, some are of the opinion that it was no ofher
than the Raga Bahiravi of Indian System of
Music." Refrences History of Indian Music - Dr. Sunita Sharma - Page No. 61, 62. History of Indian and Indonesian Art – Dr. Swaroop Kumar Swami – Pg. 24. Social Life in Ancient India' Chakladar Page No. 85 LalitVistara, 12, p. 139; Chakladar, p.127, 139 'Tribes of Ancient India' by 'La', 1943, page no. 11 Jataka 1, 437; NS. C. Law page 72, Jataka 5, page 5॰5; Law. page 166 Sangeet Visharad - Vasant - Page no. 17 Hindustani Sangeet Shastra (Part III) - Prof. Bhagwat Sharan Sharma - Page No. 125 History of Indian Music - Ram Avatar Veer - Page No. 77 - 215 Indian Culture - Dr. Lallan G Gopal and Dr. Brijnath Singh Yadav - Page No. 179 A Historical Analysis of Indian Music - Dr. Swatantra Sharma - Page No. 23 History of Indian Music - Umesh Joshi - Page No. 134 History of Indian Music - Dr. Sharchadra Sridhar Paranjpe - Page No. 174 History of Indian Music - Thakur Jaidev Singh - Page No. 233 S. Beel - The Romantic Legend of Shakya Buddha - page no. 1॰25. Sangeetayan - Amaldas Sharma - Page no. 176 Swami Pragnananda – Music of Nations – Pg. 185
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