ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम उस समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति है। किसी भी राष्ट्र के शारीरिक मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य
है। “ 6) बेकन के शब्दों में - “संस्कृति में मानव की आन्तरिक एवं स्वतंत्र जीवन की अभिव्यक्ति होती है। 7) प्रसिद्ध समाजशास्त्री ग्रीन का मत है कि, “संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विष्वास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान व व्यवहार से उत्पन्न साधनों की व्यवस्था को, जो कि समय के साथ-साथ परिवर्तित होती है, कहते है, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है। “ उपरोक्त परिभाषाओं एवं अन्य विद्वानों के विचारों के सम्मिलित अध्ययन द्वारा यह सार्वभौम मत प्राप्त होता है कि संस्कृति मनुष्य के आचार-विचार, जीवन यापन को तरीकों, परम्पराओं, सामाजिक क्रियाकलापों, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, वेशभूषा, ज्ञान, कला, दर्शन, विष्वास इत्यादि का सम्मिलित रूप है। सारांश में जीवन का संशोधन संस्कृति है। किसी भी स्थान की संस्कृति के निर्माण में उस स्थान की प्राकृतिक परिस्थितियाँ (जलवायु एवं अन्य भौगोलिक परिस्थितियाँ) तथा इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान होता है । भारत एक विशाल देश है और इसी विशालता के कारण यहाँ जलवायु तथा अन्य भौगोलिक परिस्थितियों में अनेक भिन्नताऐं विद्यमान हैं और यही कारण है कि यहाँ पर्याप्त सांस्कृतिक भिन्नताएं भी पाई जाती हैं परन्तु इतनी सांस्कृतिक भिन्नताओं के उपरांत भी भारतीय संस्कृति के मूलाधार तत्व समान व सर्वकालिक हैं। भारत के इतिहास में प्राचीन काल को वैदिक काल भी कहा जाता है इस काल की संस्कृति वैदिक अथवा आर्य संस्कृति कही जाती है आज के आधुनिक भारत की संस्कृति के मूल में भी वैदिक संस्कृति के संस्कारों का ही सर्वाधिक महत्व है। वैदिक संस्कृति के मूल तत्वों अध्यात्मवाद, त्यागभाव, कर्मवाद, आत्मविष्वास, पुर्नजन्मवाद इत्यादि का भारतीय संस्कृति के निर्माण के मूल में विशिष्ट योगदान है। भारतीय संस्कृति का 5000 वर्षों का दीर्घ इतिहास रहा है। इन 5000 वर्षों में अनेकों आक्रमणों के प्रहार सहकर भी भारतीय संस्कृति आज भी अपने पूर्ण वैभव के साथ स्थापित है। हालांकि चीन के अतिरिक्त विष्व की अन्य प्राचीन संस्कृतियाँ एवं सभ्यताऐं इस दीर्घकाल में अपने चरम वैभव को प्राप्त करने के पश्चात् अन्त को भी प्राप्त कर चुकी हैं परन्तु भारतीय संस्कृति अपने मूल तत्वों के साथ आज भी न केवल अक्षुण्ण बनी हुई है अपितु सतत् विकासशील भी है। प्रो० हुमायूँ कबीर के शब्दों में “हजारों उलट-फेरों के बावजूद भी भारतीय संस्कृति आधुनिक युग तक जीवित है और वह एक ऐसी शक्ति का प्रदर्शन कर रही है कि वह भावी संस्कृति का फलदायी साधन बन सकती है।“ भारतीय संस्कृति के स्थायित्व के विषय में महाकवि डॉ. सर मुहम्मद इकबाल ने लिखा है - “यूनानी-मिश्री-रूमा सब मिट गये जहाँ से, बाकी अभी है लेकिन नामों निशां हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा।“ भारतीय संस्कृति की इस अक्षुण्णता के रहस्य को यदि हम समझने का प्रयत्न करें तो हम पाते हैं कि भारत देश के 5000 वर्षों के ज्ञात इतिहास में इस देश में अनेकों विदेशी जातियों का आगमन हुआ । इनमें से कुछ ने शांतिपूर्ण ढंग से तो कुछ ने आक्रमण कर इस देश में प्रवेश किया, कुछ विदेशी जातियों ने इस देश में शासन भी किया और स्थायी रूप से यही बस गए। इन सभी जातियों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का भारतीय संस्कृति ने सहर्ष आत्मसात किया। आज की आधुनिक भारतीय संस्कृति अनेकों संस्कृतियों के मेल का ही परिणाम है। प्रो. डॉडवेल के अनुसार - “भारतीय संस्कृति एक विशाल महासागर के समान है। जिसमें अनेक नदियाँ (विभिन्न जातियों की सभ्यताऐं) आ-आ कर समाहित होती रही हैं ।’’ सभी के साथ मिल जुलकर समन्वयपूर्वक रहने की यही उदारता व सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की अमृतमयी निरन्तरता ही रहस्य है। इस संस्कृति के मूल में अध्यात्मिकता का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सदैव से ही इस देश के दर्शन व चिन्तन में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में गूढ़ अध्ययन को विशिष्ट महत्व दिया गया है। अध्यात्मवाद ही हमें ईष्वरीय ज्ञान तथा सत्य की ओर पूर्ण रूप से अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। भारतीय संस्कृति में मानव के सर्वांगीण अभ्युदय का विशेष महत्व है और इसलिए इसमें मानव जीवन के लिए चार पुरूषार्थ - धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष महत्वपूर्ण माने गये हैं। भारतीय संस्कृति के इन्हीं सर्वकालिक मूल तत्वों एवं विशेषताओं ने इसे विष्व में एक अनुपम स्थान प्रदान किया है। REFERENCES Bharadwaj, D. and Pandey, P.D. (n.d.). Bhartiya Samaaj (Sanskrti Tatha Saamaajik Sansthaain) [Indian Society (Culture and Social Institutions)], 35, 36, 41 Shastri, M. (2003). Bhartiya Sanskrti Ka Vikaas [Development of Indian
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Shrivastav. L. (n.d.). Kala dhvani
[Art Sound], 172
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