ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
TRADITIONAL HANDICRAFTS OF UTTAR PRADESH उत्तर प्रदेश के परम्परागत हस्तशिल्प Dr. Sunita Gupta 1 1 Professor & Head, Department of
Drawing & Painting, D.S. College, Aligarh, India 2 Assistant Professor, Department of
Drawing & Painting, D.S. College, Aligarh, India
उत्तर
प्रदेश की
भूमि कला, संस्कृति, शिल्प, अध्यात्म
और धार्मिक
विचारों से ओत
प्रोत है। यह
पवित्र
स्थानों, ऐतिहासिक
इमारतों, पवित्र मंदिरो, शास्त्रों
और बौद्धिक
विकास का
केन्द्र स्थल
है। यहाँ की
भूमि के प्रति
प्रकृति की
अधिक कृपा एवं
दयालुता रही
है। पवित्र
नदियों गंगा
और यमुना ने
उत्तर प्रदेश
की भूमि को
अधिक उपजाऊ
बनाया है।
यहाँ प्राचीन
स्थापत्य और
सांस्कृतिक
विरासत से
परिपूर्ण
अद्भुत स्थान हैं।
जीवन पद्धति
को बदलने वाले
साझा करने के लिए
यादगार
अविस्मरणीय
क्षण अन्य
प्रदेश व देश
के लोग यहाँ
से ले जाते
हैं और कुछ तो
इतना प्रभावित
होते हैं कि
यहीं ही बस
जाते हैं। यह राज्य
भारत की बड़ी
जनसंख्या
वाले राज्यों में
से एक है।
इसकी स्थापना
वर्ष 1950 में
हुई। इस राज्य
की सीमाएं
पूर्व में
बिहार,
पश्चिम में
राजस्थान, उत्तर
में बिहार व
नेपाल,
दक्षिण में
मध्यप्रदेश, उत्तर
-पश्चिम में
हरियाणा, हिमाचल
एवं दिल्ली, दक्षिण-पूर्व
में झारखंड और
छत्तीसगढ़ आदि
राज्यों से
मिलती है। यह
एक पुरातन और
अपेक्षाकृत
भू-गर्भीय
स्थाायित्व
की भूमि है। यहाँ
का भू-दृश्य
पठारों,
मैदानों तथा
उर्वर नदियों
और घाटियों से
घिरा हुआ है।
गंगा,
यमुना,
सरस्वती, गोमती, पुरहा, अहनेया, घाघरा, गंडक, कोशी, जवाई, तमसा, सोन, भीलगंगा, सई, सरयू, पांडु, जवाई, चम्बल, बेतवा, केन, रामगंगा, रिहन्द, कनहर, कर्मनासा
आदि लगभग 30
नदियां हैं।
यह उत्तर में
हिमालय की
शिवालिक
पर्वत
श्रंखला से
घिरा हुआ है, यहाँ
282 नामित पहाड़
हैं।
हस्तशिल्प, कृषि
व उद्योग
धंधों से बृहद
रूप से जुडे
होने के कारण
भारत की
अर्थव्यवस्था
में भी इस
प्रदेश का
महत्वपूर्ण
योगदान है।
मुख्यतः
हिंदी भाषी इस
राज्य में
सैंकडों
पर्यटन स्थल
एवं तीर्थ
इत्यादि के केंद्र
स्थापित हैं, जहां
वर्षभर देशी -
विदेशी
सैलानियों का
आना-जाना लगा
रहता है। आगुन्तक
उत्तर प्रदेश
की यात्रा कर
भारत का सार
ज्ञात कर लेता
है। यह वह
भूमि है जहाँ
भारत का दिल
त्योहारों, लोकगीतों, संगीत
की लय तथा
अन्य
साहित्यिक
रत्नों की लय से
धड़कता है। घने
जंगल के
प्रकृति के
उदार उपहार, वनस्पति
और जीव दर्शक
को आनन्दित कर
अद्भुत अनुभव
प्रदान करते
हैं। महान
महाकाव्य
रामायण और
महाभारत के
बोल यहाँ अंकुरित
हुए। भगवान
राम, भगवान
कृष्ण और गौतम
बुद्ध ने इस
भूमि के निवासियों
के जीवन को
सदैव के लिए
परिवर्तित कर
दिया। बुद्धिमानी
और ज्ञानी
राजाओं ने
महसूस किया कि
उत्तर प्रदेश
की धरती राज्य
करने के लिए
सर्वाधिक
उपयुक्त है।
यहाँ शासित
करने वाले
शासको ने
बौद्धिक और
साहित्यिक
विकास को संरक्षण
दिया,
उन्होंने
महसूस किया कि
यह शासन करने
के लिए अधिक
आवश्यक है। प्राचीन
समय के अवशेष
इसकी कहानी को
सुनाते है।
श्लोक,
भजन,
कीर्तन की
आवाजें उत्तर
प्रदेश के
मैदानों में
प्रातः काल से
ही गुंजित
होने लगती है।
विभिन्नता
में एकता, धार्मिक
सहिष्णुता और
अंतर-जातीय
सामंजस्य आज
के समय में
यहाँ के
अतिरिक्त
अन्य कहीं देखना
बहुत मुश्किल
हैं। एक
समुदाय दूसरे
समुदाय के
त्यौहार को
मनाता है और
उनका आदर करता
है। खुले
विचारों वाले
व्यक्तियों
द्वारा परम्परायें
आगे बढ़ रही
हैं।
बहुधार्मिक व
बहुसांस्कृतिक
समाज को
विकसित करने
के लिए एक
समुदाय दूसरे
समुदाय के
लोगों की
भावनाओं को
बनाए रखने का
प्रयत्न करता
है। परम्परागत
हस्तशिल्प
कलाओं के लिए
उत्तर प्रदेश
सैकडों
वर्षों से
प्रसिद्ध रहा
है। यहाँ का
बृज क्षेत्र
भारत के
प्राचीन 16 बडे
जनपदों में
शामिल रहा है
तत्कालीन
मथुरा की
सीमाएं उत्तर
में वर्तमान
दिल्ली तक
पश्चिम में
अजमेर व
दक्षिण में
ग्वालियर तक
विस्तृत हुआ
करती थी। यहाँ
से शुंग व
कुषाण कालीन
मूर्ति शिल्प
बडी संख्या
में प्राप्त
हुए है तथा
समय-समय पर
विभिन्न
स्थानों पर
उत्खन्न
स्वरूप आज भी
प्राप्त होते
रहते हैं।
चैथी पांचवी
शताब्दी तक यहाँ
का शिल्प वैभव
अपने उच्च
स्तर पर था।
मथुरा शिल्प
पूर्ण विकसित
भारतीय परंपरागत
शैली के
स्वरूप में
पूर्ण रूपेण
भारतीय आदर्श, भावनात्मकता
व कल्पना के
सम्मिलित
प्रभावों के
साथ विकास की
और सदैव
अग्रसर हुई।
तत्कालीन समय
में यहाँ की
स्वनिर्मित
शैली के
अन्तर्गत शिव, सूर्य,लक्ष्मी, कार्तिकेय, विष्णु, बलराम,दुर्गा
आादि की
मूर्तियां
बनाने का
प्रचलन बहुत
अधिक था। इसी
क्रम में तब
से लेकर आज तक
उत्तर प्रदेश
के विभिन्न
स्थानों पर
अलग-अलग देव
प्रतिमाओं के
अतिरिक्त
अन्य स्वरूप
वाली मूर्तियां
बनाई जाती
हैं। बरेली
उत्तर प्रदेश
की राजधानी
लखनऊ एवं भारत
की राजधानी
दिल्ली के
समीप है।
प्राचीन काल में
इसे बांस
बरेली के नाम
से जाना जाता
था। रामगंगा
नदी के तट पर
बसा हुआ बरेली
उत्तराखंड़ के
उधमसिंह नगर
की बहेड़ी
तहसील की सीमा
के निकट है। Dhamija (2011) बरेली की
जरी जरदोजी की
कला ने देश
में ही नही
विदेशों में
भी अपनी पहचान
बनाई हुई है।
इस उद्योग से
हजारो कलाकार
जुड़े हुए हैं।
हाजी शकील
कुरैशी,
उद्यमी की
जरी इण्ड़िया
कम्पनी में
लगभग तीन लाख
कलाकारो ने
रजिस्ट्रेशन
कराये। ऐसा
माना जाता है
कि बरेली में
लगभग आठ लाख
जरी कारीगर हैं
जिनमें तीन
लाख महिलाएं
हैं।जरी-जरदोजी
कार्य में
बरेली का बड़ा
योगदान है।
रंग बिरंगे, सुनहरे
व रूपहले धागो
से सुन्दर रूप
एवं आकार सभी
को अपनी और
आकर्षित करते
हैं।
परम्परागत ड़िजाइनों
के साथ आज के
दस्तकार
आधुनिक रूप और
रंगो का
प्रयोग करने
लगे हैं।
मानोक्रोम
रंग व एक थीम
लेकर आज के
दस्तकार
कार्य कर
दर्शको को अपनी
ओर आकृषित
करने में सफल
हो रहे हैं।
ड़िजाइन विकास
और प्रशिक्षण
केन्द्र
बरेली में
स्थापित हो
चुका है। मुख्य रूप
से जारजेट, शिफोन, सूती
कपड़े पर कार्य
किया जाता है।
यदि कपड़ा मोटा
होता है तो उस
पर कार्य करना
कठिन होता है।
सरकार द्वारा
चलाये जा रहे
कौशल विकास
केन्द्र के
अन्तर्गत
कार्यशालायें
चलाई जा रही
हैं। सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक
और
पुरातात्विक
विरासत का
प्रतीक चित्रकूट
में प्रत्येक
अमावस्या, विशेष
कर सोमवती
अमावस्या, दीपावली
और शरद
पूर्णिमा पर
लाखों लोग
एकत्रित होते
हैं।
चित्रकूट
देवताओं का
उपहार है। प्रकृति
की अनुपम छटा
यहाँ बिखरी
हुई है। प्राचीन
काल से ही
चित्रकूट की
एक पहचान है। Dutt (2021) वनीय
क्षेत्र की
अधिकता के
कारण
चित्रकूट जनपद
में लकड़ी
कुरइया के
खिलौनों का
निर्माण वर्षो
से चला आ रहा
है। पीढ़ी दर
पीढ़ी
शिल्पकार करते
आ रहे हैं।
शिल्पकारों
का यह
पुश्तैनी कार्य
है उन्हें भी
नहीं पता कि
यह कब से चल
रहा है।
कुरइया
(दुधिया) लकड़ी
खिलौने बनाने
के अतिरिक्त
औषधि के
प्रयोग में भी
आती है। यह
कार्य यहाँ
लगभग 200-300 वर्षो
से चल रहा है।
पूरा खिलौना एक
ही व्यक्ति
बनाता है। अब
सरकार भी इस
ओर ध्यान दे
रही है। ओ.डी.ओ.पी.
के तहत यहाँ
ट्रेनिंग भी
हुई है। कॉमन
फेसिलिटी
सेन्टर भी
यहाँ शुरू
होने वाला है।
यहाँ 1000 से अधिक
परिवार इस पर
निर्भर है। एक
जनपद एक उत्पाद
योजना के
पश्चात्
सरकार की
सहायता से खिलौने
अन्य शहरो व
प्रदेशों में
भी जा रहे हैं।
नक्काशी के
लिए सरकार
नई-नई मशीनें
उपलब्ध करा
रही है। नई-नई
मशीनों का
प्रयोग कर
काष्ठ कला को
जीवंत बनाये
रखने के लिए
नई पीढ़ी भी इस
कला को सिख
रही हैं। तीर्थराज
प्रयाग का
भारतीय
संस्कृति, संस्कार, कला
एवं शिल्प के
क्षेत्र में
अपना ही महत्व
है। दुनिया
में इसकी अलग
पहचान है।
गंगा-यमुना की
धारा ने पूरे
प्रयाग को तीन
भागों में
बांटा हुआ है।
यह तीनों भाग
अग्निस्वरूप-यज्ञवेदी
माने जाते
हैं। प्रयाग
के दक्षिण
पूर्व में
बुंदेलखण्ड़, उत्तर
एवं उत्तर
पूर्व में अवध
क्षेत्र एवं पश्चिम
में निचला
दोआब क्षेत्र
है। गंगा और
यमुना के संगम
पर स्थित
प्रयाग में
सरस्वती नदी गुप्त
रूप से संगम
मे मिलती है। Hunt (1972) प्रयागराज
के समीप नैनी
में शीशा, मूंजघास
और तार के
शिल्प उद्योग
भी हैं। प्रयागराज
के समीप मूँज
घास से ड़लिया, थैले, चटाइयाँ, सजावट
के सामान
तैयार किए
जाते हैं।
मूँज एक प्रकार
की जंगली घास
है जो नदी
किनारे उगती
है। पिछले 60-70
दशकों से
स्थानीय
महिलायें
घरेलू उत्पाद
इससे तैयार कर
बेचती है।
उत्पाद को
सुन्दर बनाने
के लिए घास को
सूखने पर रंगा
भी जाता है।
एक जनपद एक
उत्पाद के
अन्तर्गत
मूँज घास से
बने उत्पादो
को
प्रोत्साहन
दिया जा रहा
है। बुलन्दशहर
जिले का
खुर्जा शहर
सिरेमिक पॉटरी
के लिए जाना
जाता है। ऐसा
विश्वास किया
जाता है कि 500
वर्ष पहले
इजिप्ट और
सीरिया के
कुम्हार
अफगानी राजा
तैमूर लंग के
साथ यहाँ आये
थे। दुसरा यह
भी कहा जाता
है कि मुगल
काल से इसका उद्भव
हुआ। आधुनिक
काल में 1942 में
उत्तर प्रदेश सरकार
द्वारा पॉटरी
कारखाने की
स्थापना के
साथ सिरेमिक पॉटरी
के कार्य में
तेजी आई।
द्वितीय
विश्व युद्ध के
समय घरेलू
बर्तन बनाने
के लिए
विभिन्न धातुओं
पर प्रतिबंध
लगा दिया गया
था। उस समय
मुख्य रूप से
अस्पतालों के
लिए चीनी
मिट्टी के
सामान की मांग
यहाँ से पूरी
की गयी। Roy (2015) खुर्जा के
सफेद मिट्टी
के बर्तन कला
और शिल्प के
उत्कृष्ट
उदाहरण है।
स्थानीय
मिट्टी,
सफेद चूरा, मुल्तानी
मिट्टी और
सूखी रेत एक
अनुपात मे मिलाकर
मिश्रण तैयार
किया जाता है।
मिश्रण को
मोल्ड़ में
ड़ाला जाता है।
बर्तन तैयार होने
के बाद कुछ
दिनों के लिए
धूप में
सुखाया जाता है।
हाथ से
चित्रकारी
करके चमकदार
परत चढ़ाने के
लिए ग्लेजिंग
(चमकदार परत)
में डुबाया
जाता है।
तत्पश्चात्
1200-1250
सेंटीग्रेट
पर भट्टी में पकाया
जाता है एवं
बर्तन भट्टी
में 4 से 5 दिन के लिए
रखे रहते हैं।
15000 से 25000 लोग इस
कला से जुड़े
हुए हैं।
पारम्परिक
कला को आगे
बढ़ाने के लिए
लगभग 80
इकाइयां लगी
हुई हैं। खुर्जा पॉटरी
पूरी दुनिया
में लोकप्रिय
है पारम्परिक
मटका,
पॉट के साथ
चाय दान सेट, कॉफ़ी
मग, ड़िनर
सेट फूलदान
एवं आधुनिक पॉटरी
नये ड़िजाइन के
साथ दिखाई दे
रही है।
कलात्मक नमुनों
में भी बदलाव
आया है।
डिजाइनों में
परम्परा और
आधुनिकता
दोनो का कूट
है। कहीं-कहीं
इस्लामिक और
अरेबिक
ड़िजाइन भी
दिखाई देते हैं।
पत्तेदार
डिजाइन
जापानी हाइकू
से प्रभावित
है। खुर्जा पॉटरी
में जयपुर की
नीली पॉटरी की
भी झलक दिखाई
देती है। Tiwari (2018) तकनीक एवं
गुणवत्ता में
सुधार के
पश्चात् मिट्टी
क्राकरी की
मांग बढ़ने लगी
और नये-नये बर्तन
बनने लगे हैं।
भारत के साथ
अमेरिका, यू.ए.ई., ब्रिटेन, नीदरलैंड, दक्षिण
अफ्रीका व
अफगानिस्तान
में इनकी माँग
बढ़ रही है। लखनऊ
परिष्कृत
कलाओं,
ऐतिहासिक इमारतों
और समृद्ध
सांस्कृतिक
विरासत के
साथ-साथ अपनी
नजाकत के लिए
भी जाना जाता
है। प्रदेश की
राजधानी
चिकनकारी, हैंड़
ब्लॉक
टेक्सटाइल
प्रिंटिग और
जरदौजी
हस्तशिल्प के
लिए प्रसिद्ध
है। चिकनकारी
लगभग 400 वर्ष
पुराना
हस्तशिल्प
है। चिकनकारी
लखनऊ की कढ़ाई
एवं
कशीदाकारी की
प्रसिद्ध
शैली के रूप
में जानी जाती
है। इस उद्योग
का अधिकांश
भाग पुराने लखनऊ
के चैक इलाके
में फैला हुआ
है। चिकनकारी
की लगभग 36 से 40
.प्रकार की
शैलियाँ
प्रचलित हैं
जिनमें टप्पा, मुर्रे, जाली, टेप्ची
आदि प्रमुख
हैं तथा इसके
प्रसिद्ध व
माहिर
कारीगरों में
उस्ताद फयाज
खाँ और हसन
मिर्जा थे।
यद्यपि
वर्तमान में इस
कार्य को करने
वालों में
महिला
शिल्पकारों
की संख्या
सर्वाधिक है।
चिकनकारी की
यह कला अब
मात्र लखनऊ
शहर में न
रहकर आस-पास
के अंचलो व
गाँवों तक भी
फैल चुकी है
जिससे बहुत से
परिवारों को
आय का साधन भी
उपलब्ध हुआ
है। Yogesh (2000) महीन कपड़े
पर सुई धागे
से टांको
द्वारा इस कला
को तैयार किया
जाता है अपनी
बारीकी एवं
विशिष्टता के
कारण ही यह
कला सैकड़ो
वर्षो से अपनी
लोकप्रियता
बनाये हुए है।
चिकन शब्द
फारसी भाषा के
शब्द ‘‘चिकन’’ से
बना है जिसका
अर्थ होता है कशीदाकारी
या बेल बूटे
उभारना।
इतिहासकार मानते
है कि
चिकनकारी
मुगल सम्राट
जहांगीर की पत्नी
नूरजहां को
बहुत अधिक
पसंद थी जिससे
नूरजहां ने
इसे ईरानी
कलाकारों के
माध्यम से 1972 में
आरम्भ कराया
जब फैजाबाद से
राजधानी लखनऊ
स्थानांतरित
की गई। आगे
चलकर नवाबों
ने भी चिकनकारी
के काम को बहुत
बढ़ावा दिया। चिकन मलमल, रेशम, शिफॉन, आरगंजा, नेट
आदि विभिन्न
प्रकार के
वस्त्रों पर
मुख्य रूप से
की जाती है।
आधुनिक चलन के
साथ रेशमी
धागे का तथा
सफेद धागे के
साथ रंगीन धागो
का प्रयोग
किया जाने लगा
है।
परम्परागत 32
स्टिचों के
साथ-साथ
मुकैरा,
कामदानी, बदला, सिक्विन्स, मोती
व शीशे का
अलंकरण का भी
प्रयोग किया
जाने लगा है। बनारस की
कला, शिल्प, संगीत, साहित्य
आदि का इतिहास
हजारों वर्षो
पुराना है इसे
भारत की
सांस्कृतिक
राजधानी भी
कहा जाता है।
बनारस का
पुरातत्व,
पौराणिक
धार्मिकता, भौगोलिक
एवं ऐतिहासिक
स्थिति आदि भी
इसे महत्वपूर्ण
बनाते हैं।
बनारस को
वाराणसी नाम
से भी जाना
जाता है। यहाँ
विभिन्न
प्रकार की वास्तुकलाओं
का संग्रह
देखकर कोई भी
आश्चर्यचकित
हो जाता है।
यह नगरी
ऐतिहासिक
परम्पराओं के
साथ साथ
परिवर्तनशील
स्वरूप और
गतिशीलता भी
प्रस्तुत
करती रही है। समय के
साथ साथ बनारस
को कुशल
शिल्पकारों
ने भी अपना
ठिकाना बनाया
जिससे यह नगर
सिल्क साड़ियों, खिलौनों, मीनाकारी
आभूषणों
इत्यादि अन्य
कई प्रकार की
हस्त कलाओं के
लिए प्रसिद्ध
हैं। स्थानीय
शिल्पकारों
द्वारा
उत्पादित
बनारसी
साड़ियाँ भारत
सहित
सम्पूर्ण
विश्व में
अपनी पहचान रखती
हैं। इन्हें
सोने/चाँदी के
जरी वर्क, उत्कृष्ट
सिल्क
एवं शानदार
कढ़ाई के लिए
जाना जाता है
इनकी बुनाई के
आलेखनों में
गहन गुथाई
द्वारा फूल
पत्तियों का
रूपांकन, मुगल
प्रेरित
चित्रकारी
सहित
मीनाकारी का काम
है। ललितपुर
भी जरी वर्क, कढ़ाई
के कार्य के
लिए जाना जाता
है। गुलाबी
मीनाकारी
युक्त आभूषण
एवं क्राफ्ट भी
बनारस की अपनी
अति विशिष्ट
कला है।
मीनाकारी एक
तरह की इनामेल
आर्ट है जिसका
परिचय ईरानी
कलाकारों ने
मुगलकाल के
दौरान भारतीय
कलाकारों को
कराया।
पारम्परिक
रूप से यह
सोने पर की
जाती थी
किन्तु
धीरे-धीरे
चाँदी एवं
ताबे पर भी की
जाने लगा।
साधारणतः
मीनाकारी की
कला पहले
भवनों में
दिखाई पड़ती थी
किन्तु बाद
में इसका
प्रयोग राजसी
आभूषणों में
भी किया जाने
लगा जबकि आज
गुलाबी
मीनाकारी की
कला आभूषणों
के साथ-साथ
विभिन्न
धार्मिक मूर्तियों
व रूपकारों
में भी दिखाई
पड़ती है। इनके
अतिरिक्त
लकड़ी के
खिलौने भी
अपनी निजी
विशेषताओं के
लिए प्रसिद्ध
है जिनमें
विभिन्न
प्रकार की देवी
देवताओं की
मूर्तियाँ, मर्तबान, चाबी
के छल्ले, तरह-तरह
के पात्र
इत्यादि
बनाकर भारत के
विभिन्न
हिस्सों में
निर्यात किए
जाते हैं। आगरा जिला
अपने चमडे़ के
काम के लिए
राष्ट्रीय
स्तर पर विशेष
प्रसिद्ध रहा
है। यहां बनने
वाले जूते, बैग
व अन्य सामान
देश के
अतिरिक्त
विदेशों में
भी निर्यात
होते हैं। यहाँ
चमड़े के कार्य
एवं मुलायाम
पत्थर के
जालीदार खोखले
खिलौने बनाने
की परंपरा भी
बहुत पहले से
चली आ रही है।
वैसे तो
संगमरमर पर
जड़ाई कार्य
मुगलों के समय
से होता आया
है किन्तु आज
भी शिल्पकारों
के वंशजों ने
इस कार्य को
सहेज कर रखने
एवं आगे बढाने
में
महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई
है। आगरा आने
वाले
देशी-विदेशी
पर्यटक इस प्रकार
के सुंदर
खिलौनों की
कला को बहुत पसंद
करते हैं एवं
उन्हें खरीद
कर अपने साथ
भी ले जाते
हैं जिससे
आगरा के
पर्यटन
उद्दोग को लाभ
मिलता है। नेपाल की
सीमा के निकट
स्थित
लखीमपुर-खीरी
जिले में
दुधवा नेशनल
पार्क के
आसपास के
क्षेत्र में
विभिन्न थारू
जनजातियां
निवास करती है
इन्ही के
द्वारा
स्थानीय
क्षेत्र में
पाए जाने वाले
मूँज घास व सन
के प्रयोग से
विभिन्न
प्रकार के कलात्मक
खिलौने , टोपियां , चप्पल, बैग, दरी
इत्यादि बनाए
जाते हैं।
जिन्हें
ज्यामिति
आकार की सुंदर
डिजाइन एवं
पशु-पक्षियों
की आकृतियों
से सजाया जाता
है। अमेठी व
आसपास के क्षेत्र
में भी स्थानीय
स्तर पर उगने
वाली मूंज घास
का प्रयोग कर
सजावटी
उत्पाद बनाए
जाते हैं। यह
उत्पाद पूर्णतया
इको- फ्रेंडली
होते हैं।
धातु
हस्तशिल्प की
प्रसिद्धि के
कारण
मुरादाबाद
जिला पीतली
नगरी के नाम
से जाना जाता
है। यहाँ बनाए
जाने वाले
धातु के
कलात्मक
उत्पाद जैसे -
बर्तन,
देवी-देवताओं
की धातु
मूर्तियां, खिलौने
आदि यहाँ की
सांस्कृतिक
विरासत एवं
विविधता के
प्रमाण है। यह
कार्य इस
क्षेत्र में
सैकडों वर्षो
से होता आ रहा
हैं एवं अपनी
उत्कृष्ट के
लिए सराहा जाता
है। यहाँ बने
उत्पाद भी
विदेश तक
निर्यात किए
जाते हैं।
भदोही जनपद
हस्त शिल्प
कला के लिए विशेष
प्रसिद्ध है यहाँ
उत्कृष्ट
डिजाइन युक्त
कालीन
प्रशिक्षित शिल्पकारों
के द्वारा
बुने जाते हैं
। यह जनपद
कालीन नगरी के
नाम से भी
विख्यात है। यहाँ
कालीनो की
बुनाई हथकरघा
एवं हाथों से
की जाती है इन
कालीनों में
विभिन्न रंगो
के धागों का प्रयोग
करके फुल बटन
सहित अनेक
ज्यमिति आरोन को
सुंदर डिजाइन
के रूप में
बनाया जाता
है। इन
कालीनों की
मांग
देश-विदेश तक
रहती है।
भदोही के अतिरिक्त
मिर्जापुर व
सोनभद्र जिले
के कालीन भी संबंधी
कार्य के लिए
जाने जाते
हैं। उपरोक्त
जिलों के
अतिरिक्त
उन्नाव,
शाहजहांपुर
व कासगंज जरी
जरदोजी काम के
लिए, मैनपुरी
अपनी तरकाशी
कला, संभल
हार्न-बोन
हस्तशिल्प
इत्यादि के
लिए अपनी
विशेष पहचान
रखते हैं। 2.
साहित्य
की समीक्षा 1)
सम्पादक:
शास्त्री
त्रिपाठी, सम्मेलन
पत्रिका, प्रकाशक-
सम्मेलन
मुद्रणालय
प्रयाग,
1880, पुस्तक
में भारतीय
कला, उसकी
प्राचीनता
एवं
आध्यात्मिक
पक्ष पर विस्तार
से वर्णन है।
प्राचीन काल
से ही कला को जीवन
की
अभिव्यक्ति
माना है।
तिवारी
भोलानाथ कला
पृ.
सं. 15
अध्याय में
कला शब्द की
उत्पक्ति, कला
की गणना, शिल्प
शब्द की
प्राचीन काल
में प्रयोग, कला
और ललित कला
का वर्गीकरण
पर चर्चा की
है। अवस्थी
श्री शिवशंकर
द्वारा लिखित
कला और जीवन
अध्याय में
कला और जीवन
के पक्ष पर
विचार प्रस्तुत
है। दवे श्री
विष्णुकुमार
कला का रस दर्शन
पृ.
सं. 65
अध्याय में
कला में स्थूल
और सूक्ष्म
सौन्दर्य की
चर्चा की है। 2)
सम्पादक:
भारद्वाज
विनोद,
कलाएँ आसपास, प्रकाशक-ललित
कला अकादमी-
नई दिल्ली, 2005, सुन्दरम्
विवान् कलाओं
के बीच
अव्यक्त सम्बन्ध
पृ.सं. 98
लेख में लिखा
है कि कलाओं
में मध्य कला
होने का
सम्बन्ध होता
है। कला
विभिन्न
माध्यमों के बीच
एक सम्बन्ध
बनाती रही
हैं। मिश्र
यतीन्द्र-
कलाओें की
पारिस्थितिकी
में रंग, राग और
विचार- पृ. सं. 102 मे
लिखा है कि
कला ऐसी भाषाई
अभिव्यक्ति
है, जिसे
व्याख्यायित
करना कठिन है।
कला की दुनिया
के अधिकतर
अभिप्राय
उपयोगी होते
हैं। कला नई
सभ्यता का
निर्माण करती
है, जो
बहुस्तरीय
होती है। 3)
सम्पादक:
शुक्ल
रामचन्द्र, कला
और आधुनिक
प्रवृत्तियां, प्रकाशक-हिन्दी
समिति,
उत्तर
प्रदेश शासन, लखनऊ, 1974
लेखक ने कला, कलाकार, कला
और समाज, कला और
शिल्प,
कला और समाज, जीवन
और कला और कला
के कार्य आदि
अध्यायों में
कला और शिल्प
के विभिन्न
पहलुओं पर
प्रकाश ड़ाला
है। कला का
कार्य केवल
वर्तमान तथा
भूत का ही
चित्रण करना
नहीं है, वरन् उसे
भविष्य भी
लक्षित करना
चाहिए। 4)
सम्पादक: प्रवीन
योगेश,
लखनऊ का
टेराकोटा
शिल्प कला
त्रैमासिक-प्रकाशक-सचिव, ललित
कला अकादमी
उत्तर प्रदेश
लखनऊ,
2000, लेख में
लखनऊ के
टेराकोटा
शिल्प का इतिहास, लखनऊ
का इतिहास पर
प्रकाश ड़ाला
है। प्राचीन काल
से आज तक
बनाये जाने
वाले मिट्टी
के खिलौने
लखनऊ की पहचान
है। मुहर्रम
और बुढ्ड़ा के
मेले का भी
जिक्र किया
है। 5)
सम्पादक: पंवार
प्रभा,
उत्तर
प्रदेश की लोक
कथाओं में
भिक्ति व भूमि
चित्रण,
कला
त्रैमासिक-प्रकाशक-सचिव, ललित
कला अकादमी
उत्तर प्रदेश
लखनऊ,
2002, लोक कथाएं
मनुष्य के मन
और बुद्धि की
पारम्परिक
धरोहर है। लोक
कला में लोक
गाथाओं के
चित्र देवी
देवताओं के
विभिन्न शैली
में चित्र, भूमि
चित्रण,
कलश चित्रण व
अन्य
अलंकारिक
चित्रण
समाहित हैं।
उत्तर प्रदेश
में लगभग 128
व्रत-पर्व एवं
त्यौहार
मनाये जाते
हैं। 6)
सम्पादक: तिवारी
संजय,
सृष्टिपर्व
कुम्भ,
प्रकाशक-अनामिका, प्रकाशन, इलाहाबाद, 2018, लेखक
ने पुस्तक में
भारत,
भारती और
भारतीयता का
परिचय दिया
है। सांस्कृति
में आस्था
भारतीय जीवन
दर्शन का आधार
है। भारत के
जीवन दर्शन
में प्रकृति, सृष्टि
और संस्कृति
का मूल है।
संस्कृति का आधार
संस्कार होते
हैं।
प्रयागराज
में आयोजित
कुम्भ पर
विस्तार से
चर्चा की है।
वैदिक साहित्य
में वर्णित
प्रयाग के
महत्व का
वर्णन है।
पूर्व में
आयोजित कुम्भ, 2019 के
महाकुम्भ की
तैयारी का
विशद वर्णन
है। 7)
संपादक:
भारद्वाज
कुमकुम,
रंगो का
संयोजन,
प्रकाशक-
ग्रंथालय
पब्लिकेशन
एण्ड़ प्रिंर्टस, इंदौर
2014, पुस्तक
में रंगो के
प्रत्येक
आयाम की छाया
है। रंगो का
महत्व कला, सामाजिक
संस्कृति, शिल्प
सभी में है।
रंगो की
विविधता कला
को विस्तृत
क्षितिज
प्रदान करती
है उसको अधिक
आकर्षक एवं
भावपूर्ण
बनाती है।
रंगो के
माध्यम से ही
कला के सही
भाव, वातावरण
एवं अर्थ का
ज्ञान होता
है। रंग मानव को
अपनी और तेजी
से आकर्षित
करते हैं। 8)
Wikipedia.org/wiki/Chitrakoot_Dham_(karwi) चित्रकूट
का विवरण, वहाँ
के प्रमुख
स्थल-कामदगिरि, रामघाट, जानकी
कुण्ड़,
स्फटिक शिला, अनसूइया
अत्रि आश्रम, गुप्त
गोदावरी, हनुमान
धारा,
भरतकूप का
सम्पूर्ण
विवरण है। 9)
Prayagraj.nic.in पर
टूरिज्म्, कुम्भ-2016
आदि की वैधिक
जानकारी
उपलब्ध है। 10)
Wikipedia.org/wiki/Allahabad
उत्तर प्रदेश
का प्रशासनिक
मुख्यालय
प्रयागराज है
जिसे
इलाहाबाद के
नाम से भी
जाना जाता है।
यह त्रिवेणी
संगम अर्थात
गंगा,
यमुना और
सरस्वती का
संगम के निकट
है। यहाँ की
संस्कृति के
विषय में
विस्तृत
जानकारी उपलब्ध
है। 3.
निष्कर्ष उत्तर
प्रदेश के
हस्तशिल्प
कलाकारों को
समय-समय पर
केंद्र एवं
राज्य
सरकारों
द्वारा स्थानीय
स्तर पर कैंप
लगाकर
प्रशिक्षित
भी किया जाता
है। निश्चित
ही इस प्रयास
से हस्तशिल्प कलाओं
की गुणवत्ता
निखरती है।
संस्कृति एवं प्राचीन
धरोहर को
सहेजने में
सहायता मिलती
है एवं उनके
प्रचार
प्रसार से
हस्तशिल्पकारों
की आय में भी
वृद्धि हो रही
है जिससे उनकी
स्वयं
की
आत्मनिर्भरता
बढाने के
साथ-साथ
प्रदेश व देश
में आत्म
निर्भरता में
भी लगातार
वृद्धि हो रही
है।
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESDhamija, J. (2011). Indian Folk Arts and Crafts Publisher. National Trust Book, India. Dutt, P. (2021). Indian Culture Art and Heritage. Person India. Hunt, W. B. (1972). Indian Craft and Lore. Golden Book. Roy, A. (2015). Art and Craft- Political and Cultural History Uttar Pradesh a Cultural Kaleidoscope. Information & Public Relations Deptt. U.P. Tiwari, S. (2018). Sharasthi Parv Kumbh. Allahabad: Anamika Prakashan. Yogesh, P. (2000). Kala Tremasik – Lucknow ka Terracotta Shilp kala Tremasik. Secretary, State Lalit Kala Akademy.
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