ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
Depiction of Nature in Rajasthani Gita Govinda राजस्थानी गीत - गोविन्द में प्रकृति का चित्रण 1 Self-Researcher, Rajasthan, Jaipur,
India
1. प्रस्तावना मानव ने
प्रकृति की
विशाल गोद में
जन्म लिया और
साहचर्य से
क्रमशः अपनी चेतना
को विकसित
किया है।
प्रकृति के
अनेक सौन्दर्य
युक्त
रूपकारों ने
मानव को सदैव
ही अपनी ओर
आकर्षित किया
है तथा मानव प्रकृति
के अनेक अंगों
के कार्यों से
इतना अधिक प्रभावित
हुआ कि उसने
इन सब में
देवत्व की
प्रतिष्ठा कर
ली तथा इनकी
सूर्य,
चन्द्र, वायु, वरूण, इन्द्र
तथा पृथ्वी
आदि नाम देकर
उनकी कीर्ति का
यशोगान करने
लगा। कवि एवं
चित्रकारों
ने प्रकृति की
एक अद्वितीय
रूप की कल्पना
की है,
जो मानव
के भाव को और
अधिक
उद्दीप्त
करती है। 15वीं
से 18वीं शती
में भारतीय
साहित्य एवं
कला की बहुत
उन्नति हुई। महाकवि
जयदेव द्वारा
रचित
‘गीत-गोविन्द’
को संस्कृत
साहित्य में
बड़ी धार्मिक
निष्ठा के साथ
देखा जाता है।
‘गीत-गोविन्द’
काव्य का सार
तत्व प्रेम
युक्त सरल पदों
के माध्यम से
आत्मा एवं
परमात्मा के
रहस्य का परिभरण
करता है।
आत्मा (राधा), परमात्मा/प्रियतम्
(श्रीकृष्ण)
के संयोग-वियोग
में प्राप्त
भाव
स्थितियों का
संकेत यहाँ सर्वत्र
विद्यमान है। Shrivastav and Gupta (1995)
‘गीत-गोविन्द’
काव्य में
प्रकृति को
बड़ा ही महत्त्वपूर्ण
स्थान
प्राप्त है।
ऋतुराज बसन्त
चन्द्र-ज्योत्स्ना, सुगन्धित
मदपवन तथा
यमुना तट के
मोहन कुंजो का
अत्यन्त ही
सुन्दर वर्णन
देखने को
मिलता हैं। सम्पूर्ण
‘गीत-गोविन्द’
गीतिकाव्य को
छोटे-बडे़
बारह सर्गों
को चैबीस
अष्टपदियों
(खण्ड़ों में
विभाजन हुआ) हैं
। संर्गो का
विषयानुकूल
नाम रखा गया
है। यद्यपि यह
काव्य पूर्वी
भारत की देन
है। लेकिन भारत
का ऐसा कोई भी
क्षेत्र नही
है,
जो
‘गीत-गोविन्द’
काव्य से
प्रभावित नही
हुआ हो। भारत
के विभिन्न
क्षेत्रों में
कला,
धर्म और
साहित्य के
क्षेत्र में
‘गीत-गोविन्द’
को अपनाया गया, जिससे
कारण
सम्पूर्ण
मध्यकालीन
भारत में इस गीति
काव्य के आधार
पर अनेक
शैलियों में
लघुचित्रों
का चित्रण हुआ, जो
विभिन्न
राज्यों में
पाये जाते हैं । 15वीं शती
के अपभ्रंश
शैली कें
चित्रकारों
का प्रिय विषय
गीत-गोविन्द
रहा,
जो भारत
के विभिन्न
कला संग्रहों
में संग्रहीत
है। चित्र 1
राजस्थान
के शासकों का
भी कला तथा संस्कृति
के क्षेत्र
में
महत्वपूर्ण
योगदान रहा
है। राजस्थान
चित्र शैली
विभिन्न भारतीय
शैलियों से
प्रभावित
होती हुई, वह
आजाद रूप से
राजस्थान के
वीर
प्रान्तों में
फली-फूली। जिससे
‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘भागवतपुराण’, ‘गीत-गोविन्द’
पर आधारित
चित्रों की
रचना हुई। चित्रकारों
ने मनोभावों
को सूक्ष्म
अंकन द्वारा
प्रस्तुत
किया है।
चित्रकारों
ने रेखाओं से
काव्य की
आत्मा को
चित्रित किया
है। चित्रों
में लोकजीवन
के साथ
प्राकृतिक
सन्निवेशों
का बड़ा ही भाव
ग्राही
चित्रण हुआ
है। जिसमें
कमल पुष्पों
से पूरित
यमुना नदी, काले-नीले
मेघों,
आकाश, चन्द्रमा, तारे, वन-उपवन, पेड़-पौधे, फूल-पत्तियों
से भरे निकुंज
पहाडियों आदि
का आकर्षण
चित्रांकन
हुआ। यहाँ तक
कि इस काव्य में
पक्षीगण भी
प्रेम की
शक्ति और शोभा
का गान करते
हुए देखने
योग्य है। मेवाड़
शैली में
‘गीत-गोविन्द’
का (चित्र 1) ‘कामबाण’
महाराणा
जगतसिंह
(प्रथम) के
शासक में सन् 1630 ई. में
चित्रित हुआ।
इस चित्र में
आकृतियों को
सरलीकृत रूप
में एवं साथ
ही
जीव-जन्तुओं, नदी, पहाड़
आदि
प्रतीकात्मक
एवं सुहावने
रूपों में प्रस्तुत
किया। चित्र 2
प्राकृतिक
दृश्यों में
कुछ पेड़ों का
सुन्दर चित्रित
किया गया है।
आम,
पलाश, खजूर
और केले के
पत्तों का
अत्यन्त ही
आकर्षक
संयोजन फूलों
की लताओं के
साथ चित्रित
हुआ है। नदी
का काली
रेखाओं से
अंकन किया गया
है। Vashishtha (1984) ‘सखी राधा को
बसन्त ऋतु के
आगमन के बारे
में बताती
हुई‘ लघुचित्र
प्रथम सर्ग के
तीसरे प्रबन्ध
का सातवें
श्लोक से
मिलता है। इस
लघुचित्रों
को चार
क्षेत्रों
में विभाजित
किया गया है।
चित्र में
वृक्ष एक तरफ
झुके हुए
बनाये गए हैं।
ऐसा लग रहा है
जैसे बसन्त
ऋतु में
मलयाचल की
वायु हिमालय
की ओर जा रही
है। जिसके
कारण वृक्ष
झुक गए हैं । (चित्र 2) चित्र
में कई प्रकार
के वृक्ष हैं।
आम,
खजूर, अशोक, केला
आदि घेरदार
वृक्षों एवं
पुष्पदार पौधों
को दर्शाया
गया है। चित्र
भूमि में आगे
की ओर लहरदार
रेखाओं
द्वारा यमुना
नदी को
चित्रित किया
गया है,
जिनमें
कमल पुष्प खिल
रहे है।
जिसमें कमल के
पुष्प खिल रहे
हैं तथा ऊपर
आसमान को नीले
रंग से
चित्रांकन
किया गया हैं। लघुचित्र
में काव्य के
पद के अनुसार
चित्र को भावपूर्ण
बनाया गया तथा
चित्र में
लालित्य रेखाओं
को कोमलता, रंगों
का संयोजन, स्थापत्य, वेशभूषा, आभूषण, प्रकृति-चित्रण
आदि का आकर्षण
है। मारवाड़ शैली
की एक उन्नत
शाखा किशनगढ़
शैली रही। इस
शैली के
चित्रों में
चाहे वह
‘बणीठणी’ हो या
‘राधा-कृष्ण’
की कोई लीला, सर्वत्र
आध्यात्मिकता
के ही रंग
दृष्टिगत होते
हैं। Shukla (2007) किशनगढ़ का
प्राकृतिक
परिवेश भी
किशनगढ़ शैली के
चित्रकारों
के लिये
प्रेरणा एवं
चित्रण का
विषय रहा।
झीलों,
पहाड़ो, वनों, पशु-पक्षियों
तथा झीलों के
सुखद सरोवरों
में कमल एवं
निकुज के मध्य
क्रीड़ा करते
हुए हंस, बतख, बगुला, सारस, वक्र
आदि का चित्रण
हुआ है। इसके
साथ ही लहरों
में चलती
नौकाएँ भी
अधिक सुन्दर
तथा आकर्षक रूप
में चित्रित
की गई है।
चित्रकारों
ने प्रकृति को
भावुकता से
देखा है और
आलंकारिता को
अपनाया है।
प्रायः घने
वनों के निकुज
में खासतौर पर
चमेली,
आम्र, जामुन, केला, कदम्ब
आदि वृक्षों
का चित्रण हुआ
है। राजस्थानी
शैली के अनेक
चित्रों में
वृक्षों के
पत्तों का
चित्रण मयूर
पंखी वृक्ष
जैसा दृष्टिगत
होता है। अनेक
शैलियों में
केवली सीधी
रेखाएं बनी है, कहीं
बिन्दु है तथा
कहीं छोटे
पत्ते है। इन
वृक्षों का
सर्वोत्तम
विकास किशनगढ़
शैली में हुआ
है। इस शैली
में वृक्षों
के तनो को
मोटा,
लम्बा एवं
शाखाएं,
पत्तियों
को अधिक ऊपर
से चित्रित
किया गया है, जबकि
मेवाड़ शैली
गीत-गोविन्द
में छोटे-छोटे
पत्तो के घने
वृक्ष गहरे व
हल्के रंग का
प्रयोग यमुना
नदी के किनारो
पर वृक्षों को
अंकित किया
गया है। जिनके
ऊपर तोता, मोर
व क्रीड़ा करते
हुए बन्दर
दर्शाए गए है।
Pratap (2006) ‘कृष्ण
गोपियों के
साथ नृत्य
करते हुए’
लघुचित्र
काव्य के
दूसरे सर्ग के
प्रथम श्लोक
पर आधारित है।
(चित्र 3) यह
चित्र किशनगढ़
के राजा
कल्याण सिंह
सन् (1798-1838)
के समय
में चित्रित
किया गया था। गोपिकाएँ
कृष्णमय होकर
स्वार्गिक
आनन्द की
प्राप्ति कर
रही है और
यमुना भी अपनी
कल-कल ध्वनि
से राधा के
प्राणों में
हलचल पैदा कर
रही है। मलय
समीर,
फूलों का
इठलाना,
भौरों की
गुनगुनाहट, पक्षियों
की कूक राधा
के मनभावों को
प्रकट कर रहे
हैं। कमल को
गुलाबी रंग से
चित्रित किया
गया तथा कमल
दल आनन्द भाव
से नृत्य करते
हुए दृष्टिगत हैं, जो
उल्लासपूर्ण
स्थिति को
प्रदर्शित
करते हुए
दिखाई दे रहे हैं
। चित्र में
काव्य में
वर्णित अंशों
को रंगों, रेखाओं
द्वारा
चित्रकार ने
प्रकृति को
चित्रित किया हैं
। चित्र 3
राजस्थानी
चित्रकला के
प्रमुख केन्द्रों
में हाडौती
स्कूल भी है।
यहाँ की शैली
में ऐसे अनेक
चित्र,
अनेक
भावनाएँ
बूँदी शैली की
कृतियों में
है,
जो कल्पना
की मधुरता
अभिव्यक्ति
की परिचायक है।
बुंदी के सभी
राजा बल्लभ
कुल
सम्प्रदाय में
शिक्षित
दीक्षित होने
के कारण
कृष्ण-भक्ति
तथा धार्मिक
रूझान के थे।
इस क्षेत्र की
चित्रकला के
अधिकांश
चित्र राधा-कृष्ण
की युगल छवि
एवं
प्रेमलीला पर
आधारित है।
‘गीत-गोविन्द’
की पदावलियों
का चित्रण यहाँ
के
चित्रकारों
का सर्वप्रिय
विषय रहा है।
इस शैली के
चित्रकार
सुरजन,
अहमदअली, रामलाल, श्री
किशन,
साधुराम, और
मन्ना थे। Goswami (1997) बूंदी
शैली में
गीत-गोविन्द
काव्य पर
आधारित 16वीं
शती में
चित्रित पोथी, जो
भारत कला भवन, वाराणसी
में सुरक्षित
है। Dwivedi (1988) गीत-गोविन्द
के
लघुचित्रों
में प्रकृति
को चित्रित
किया गया है।
लताकुंजो का
सृजन,
वृक्षों
का संयोजन, चाँद
सूरज का
प्रदर्शन
आरम्भिक
मेवाड़ी चित्रकला
के समान है। ‘विरहणी राधा’ (चित्र 4) में
कुंज को
प्रदर्शित
करने के लिए
इस रेखाचित्र
में दो
वृक्षों और
पौधों का
चित्रांकन हुआ
है। वृक्षों
की टहनियाँ
झुकी हुई है, जो
राधा के विरह
को दर्शाती
है। वृक्ष एवं
पौधे
काल्पनिकता
लिए हुए है।
पौधों का
फूलों से
भरपूर
रेखांकन किया
गया है। जिनके
मध्य राधा-सखी
का चित्र अंकन
किया गया है।
चित्रकार ने
रेखाकन को
कोमलता के साथ
लयात्मकता
लिए हुए संयोजन
में अद्भूत
रूप से
प्रस्तुत
किया है। चित्र 4
प्राचीन
काल में जयपुर
और इसके
आस-पास का
क्षेत्र ढूँढाड़
कहलाता था।
कछवाहा
राजपूतों के
आश्रम में फलने-फूलने
से कछवाहा
चित्रकला तथा
आमेर राजधानी
होने के कारण
इसे आमेर
चित्र शैली के
नाम से भी
जाना जाता है।
कच्छवाहा
वैष्णवमत के
भक्त एवं
समर्थक थे। यहाँ
काव्य व संगीत
की भाँति
कृष्ण-भक्ति
के समर्थक थे।
यहाँ काव्य व
संगीत की
भाँति
कृष्ण-भक्ति
ने चित्रकला
को भी
प्रभावित
किया,
जिससे
अनेक धार्मिक
विषय चित्रण
मिलते है। Pratap (2010) सवाई जयसिंह
सन् (1699-1743 ई.) महाराजा
प्रतापसिंह
(सन् 1779-1803 ई.) एवं
महाराजा सवाई
जगतसिंह (सन् 1803-1830ई.) के काल में
गीत-गोविन्द
का चित्रांकन
हुआ। Pratap (2011) जयपुर
शैली में
चित्रित
गीत-गोविन्द
की तीन पोथियाँ
सिटी पैलेस
संग्रहालय, जयपुर
में सुरक्षित
है तथा कई
चित्र देश के
विभिन्न
संग्रहालयों
में संग्रहित
है। (चित्र 5) ‘‘कृष्ण
यमुना किनारे
गोपियों के
साथ’’ इस चित्र
में पृष्ठ
भूमि हरी-भूरी
है। आसमान
नीले रंग का
है तथा
परम्परागत
जयपुरी-वृक्षों
का प्रदर्शन
किया गया है। वृक्षों
के सरो के
पत्ते कुछ
दानेदार है।
जिनमें
यथार्थवादी
प्रवृत्ति
परिलक्षित
होती है।
वृक्षों के
ऊपर मँडराते
हुए भँवरे तथा
पक्षियों के
समूह
विराजमान है। राजस्थानी
शैलियों में
‘गीत-गोविन्द’
सम्बन्धित
चित्रों में
प्रकृति का
भिन्न-भिन्न
अंकन हुआ है।
चित्रकारों
ने
‘गीत-गोविन्द’काव्य
के महाकवि
जयदेव के
अनुभव और
संस्कारों को
इन चित्रों के
माध्यम से
प्राण तत्त्व
प्रदान करने
का प्रयास
किया है। इस
शैली के
लघुचित्रों
ने अपनी
मौलिकता, कोमलता, संजीवता, रमणीयता, रस-प्रवाह
और अंकन की
क्षमता के
कारण कला-प्रेमियों
को अपनी और
आकर्षित
किया। इन
चित्रों में
रेखाओं का प्रवाह
और कोमल रंग
योजना
दृष्टिगत
होती है। चित्र 5
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESDwivedi, P. (1988-2010). Geet-Govind Sahitya Evam Kalagat Anushilan (Geetgovind Literary and Artistic Persuasion). Kala Prakashan, Varanasi, 75. Goswami, P. (1997). Bhartiya Kala Main Vividh Swaroop. Panchsheel Publication, Film Colony, 25. Pratap, R. (2006). Bhartiya Chitrakala Evam Murtikala Ka Itihas. Rajasthan Hindi Granth Academy, 207. Pratap, R. (2010). Jaipur Ki Chitrankan Parmpara (Portraiture Tradition of Jaipur). Rajasthan Hindi Granth Academy, 100. Pratap, R. (2011). Jaipur Ki Chitrankan Parmpara (Portraiture Tradition of Jaipur). Rajasthan Hindi Granth Academy, 71-72. Shrivastav, V. S., and Gupta, M. (1995). Padam Shri Ramgopal Vijayvargiya, Abhinandan Granth, Printwell Publishers Distributors, S-12 Shopping Centre, 144. Shukla, A. (2007). Kishangarh Chitrashalli. Rajasthan Hindi Granth Academy, 13, 19. Vashishtha, R. K. (1984). Mewar Kee Chitrankan Parmpara. Unique Traders, 27.
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