ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
FOLK ART MADE ON AUSPICIOUS OCCASIONS (CHOWK PURNA) IN THE CONTEXT OF UTTAR PRADESH मांगलिक अवसरों पर बनने वाली लोककला (चौक पूरना) उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में 1 Head of Department, Visual Arts
Department, Allahabad University, Prayagraj, India 2 Research Student, Visual Arts
Department, Allahabad University, Prayagraj, India
मानव का
स्वभाव
रचनात्मक रहा
है वह आरम्भ
से लेकर अब तक
कुछ न कुछ
रचता आया है, अपने
अनुभवों तथा
जीवन में घट
रही घटनाओं को
आधार बनाकर जो
भी साम्रगी
उसे उपलब्ध
हुई उसी से उन
घटनाओं को
आकार बद्ध करने
लगा इस
प्रक्रिया से
जो भी रूप बने
वह मानव कला
इतिहास के
प्रारम्भिक
उदाहरण हैं, समय
के साथ मानव
ने विकास के
अकल्पनीय
विषयों को भी
साकार किया, लोककला, लोक
मानस से ही
पोषित होती है
और उसे ही
प्रतिबिम्बित
करती है लोककला
में व्यक्ति
महज कुछ
रेखाओं
द्वारा ही ओज-पूर्ण
रूप प्रदान
करता है यह
कला किसी विद्यालय
अथवा
संस्थानों
में पोषित
नहीं होती बल्कि, यह
अपने
बड़े-बुजुर्गों
(माँ,
दादी, नानी)
से सीखकर या
उन्हें बनाता
देखकर सीखतें हैं।
लोककला में
स्थानीय
वस्तुओं (गेरू, खड़िया, हल्दी, पीली
मिट्टी आदि)
के द्वारा, पारम्परिक
रूपों को
बनाते हैं जो
लोगों की
आस्था एवं
विश्वासों से
जुड़ा होता है।
आज हम कलाओं
के विविध
स्वरूप देखते हैं
जिनमें
लोककला भी एक
प्रमुख विधा
रही है वर्तमान
में जीवन के
विविध पहलुओं
पर इस विधा का
प्रभाव देखा
जा सकता है।
लोककला मावन
की सहज
अभिव्यक्ति
का स्वरूप रही
जो सहज,
सरल व
सर्वग्राहिता
के कारण समाज
के प्रत्येक
वर्ग को एक
समान आनन्दित
करती है इसकी
प्रमुख
विशेषता
स्वपोषण रही
है लोककला में
क्षेत्रीय
मान्यताएं
स्पष्ट रूप से
देखी जा सकती
है इसका
सम्बन्ध
जनसामान्य से
रहा है इसीलिए
राजाश्रय, हवेलियों
एवं प्रबुद्ध
कलाकार आदि
इसके विकास
में बाधक नहीं
बने। चौक में
स्वास्तिक, चरण, कलश, कमल, शंख, सूर्य, चन्द्र, सप्त-कमल, अष्ट्-कमल
आदि प्रतीक
बनाए जाते हैं
जो दार्शनिक
दृष्टि से
महत्वपूर्ण
है जैसे- कलश
को शरीर व
उसमें भरा जल
जीवन रस का
प्रातीक है
तथा लक्ष्मी
से भी
सम्बन्धित
माना जाता है।
किसी भी शुभ
अवसर या
मंगलिक
कार्यों में
कलश स्थापना अवश्य
की जाती है
इसलिए मंगल का
भी प्रतीक
माना जाता है लोककला, लोक
मानस से ही
पोषित होती है
और उसे ही
प्रतिबिम्बित
करती है
लोककला में
व्यक्ति महज
कुछ रेखाओं
द्वारा ही
ओज-पूर्ण रूप
निर्मित करता है
यह कला किसी
विद्यालय
अथवा
संस्थानों
में पोषित
नहीं होती
बल्कि,
यह अपने
बड़े-बुजुर्गों
(माँ,
दादी, नानी)
से सीखकर या
उन्हें बनाता
देखकर सीखतें हैं।
लोककला में
स्थानीय
वस्तुओं (गेरू, खड़िया, हल्दी, पीली
मिट्टी आदि)
के द्वारा, पारम्परिक
रूपों को
बनाते हैं जो
लोगों की
आस्था एवं
विश्वासों से
जुड़ा होता
है। प्रागैतिहासिक
काल के
चित्रों में
अनेक ऐसे साक्ष्य
मिले हैं, जिन्हें
हम लोककला की
निष्पत्ति का
स्त्रोत मान
सकते हैं, इसी
पृष्ठभूमि
में यदि
सिन्धु
सभ्यता में मिले
मिट्टी के
पात्रों व
मुहरों पर
लिखित लोक-चित्र
साक्ष्यों को
देखें तो एक
लोक परम्परा दिखायी
देती है, मौर्य-काल
में यक्ष-
यक्षी मूर्ति
शिल्प एवं चित्र
निर्माण, भाऊँग
सातवाहन आदि
उत्तरोत्तर
कालों में
इसके विकास की
परम्परा
दिखाई देती
है। मध्य काल
की शैलियों
(पाल,
अपभ्रंश, राजस्थानी, पहाड़ी)
के चित्रों
में भी
लोक-परम्परा
का अद्भुत रूप
दिखाई देता
है। लोककला का
यह संदर्भ यही
नहीं रूका
बल्कि आधुनिक
चित्रकला के
उत्कर्ष में
योगदान दिया।
वर्तमान में
लोककला ने
अपने
परम्परागत
स्वरूप भूमि व
भित्ति के
साथ-साथ कपड़ों, बैग, कुशन, चादर
आदि अन्य
आधारों पर भी
विस्तार लिया
है। लोककला से
सजे धजे हमारे
घर अध्यात्म
और सौंदर्य से
पूर्ण एक नये
परिवेश से
परिचित करा
रहे हैं। लोक कलाकार
अपने चित्रण
में वही आनन्द
प्राप्त करता
है जो एक अबोध
बच्चे को अपने
द्वारा बनायी
गई कला से
मिलता है, बाल-चित्रकार
का चित्रण
विषय उसका
अनुभवजन्य
ज्ञान व उसके
नेत्रों में
समाये विविध
रूप है,
लेकिन लोक
कलाकार
आधुनिक
बंधनों से
मुक्त होता है
वह अपने रीति-रिवाजों, परम्पराओं, धर्मों
से जुड़ी आस्था
एवं विश्वास
को अपनी
लोककलाओं में
प्रदर्शित
करता है।
समय-समय पर
विद्वानों ने
लोककला पर
वक्तव्य दिए
है जिन्हे
दृष्टिपात
करना भी
आवश्यक है जो
इस प्रकार है- प्रो. ए. के.
हल्दर
ने लिखा है कि, ’’लोककला
परम्परागत-कला
का वह आवश्यक
स्वरूप है, जिसकी
उपेक्षा
गंवारू और
उबड़-खाबड़ कला
कहकर नहीं की
जा सकती है, चूँकि
इसका सम्बन्ध
मानव की
भावनाओं से
सीधा हैं।’’ प्रो. सी एल झा के अनुसार, ’’लोक
कला मानवीय
भावनाओं के
साथ-साथ चली आ
रही है,
जो
अति-प्राचीन
है।‘‘ आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल के
अनुसार-
‘‘लोकचित्रण
धर्म की एक
इकाई है, जिसे
व्यक्ति अपनी
धार्मिक
भावनाओं को
व्यक्त करने
में प्रयोग
में लाते
हैं।‘‘ श्री मती
शचीरानी
गुर्टू के
अनुसार-
’’लोककला
युग-युग का
इतिहास
संजोये
मानवीय भावनाओं
के साथ-साथ चल
रही है,
परम्परागत
अनुभव अगणित
मानवीय भावनाओं
और स्मृतियों
के ताने-बाने
से उसकी
सृष्टि हुई
है।’’ Saxena & Saran (1993) उत्तर
प्रदेश में
मांगलिक
अवसरों पर
निर्मित की
जाने वाली
लोककला के
विविध
स्वरूपों में चौक
पूरना भी
महत्वपूर्ण
है जो धार्मिक, सामाजिक
एवं
सांस्कृतिक
अवसरों पर
बनाई जाती है चौकपूरना
अपने भीतर
कलात्मक
मूल्यों, सौन्दर्यात्मक
एवं दाशर्निक
पक्षों को भी
समायोजित किए
रहती है। चौक पूरना भारत में एक
महत्वपूर्ण
भूमि
लोकचित्रण
परम्परा है
जिसे विभिन्न
क्षेत्रों
में भिन्न-भिन्न
नामों से जाना
जाता है जैसे-
महाराष्ट्र में
‘रंगोली‘, उत्तर
प्रदेश में ‘चौक
पूरना‘,
अल्मोड़ा
तथा गढ़वाल में
‘आपना‘,
बिहार में
‘अहपन‘ और
बंगाल में
अल्पना कहा
जाता है। Jaitly (2012)
नाम में
विभिन्नता
होने के बाद
भी इनके भीतर एक
ही भाव है
इसके मूल में
जो आनन्द तथा
आत्मीयता है, वह
सभी में समान
रूप से
विद्यमान है। अनेक
क्षेत्रों
में लोक
संस्कृति को
उकेरने का यह
सहज,
सरल एवं
लोकप्रिय
आलेखन है
किन्तु
उत्तर-प्रदेश
के क्षेत्र
में इसकी
विशेष भूमिका
है प्रायः
प्रत्येक मांगलिक
अवसरों पर घर
तथा पूजा-स्थल
को गोबर या
मिट्टी से
लीपकर चौक
पूरी जाती है।
विवाह,
हवन, पूजन, कथा, व्रत, अतिथि
सत्कार,
बच्चे के
जन्म के छठवें
दिन छठी
संस्कार के अवसर
पर चौक पूरने
का विधान
मिलता है इसको
बनाने के लिए
उंगलियों के
पोरों के
निशान,
सप्त-कमल, अष्ट्-कमल
एवं अन्य
अलंकरण किये
जाते हैं, महिलाएं
व पंडित जी के
द्वारा इसे
सुखे आटे या
भीगे हुए पीसे
चावल (अहपन), हल्दी, रोली
आदि के माध्यम
से चौक का
निर्माण किया
जाता है चौक
बनाने में
अंगूठा व
तर्जनी उंगली
का प्रयोग किया
जाता है। Gupta (2018) सर्वप्रथम
चौक पूरने के
लिए
निर्धारित
स्थल को
मिट्टी या गोबर
से लीपा जाता
है तदुपरांत्
चौक को
आड़ी-तिरछी व
सीधी रेखाओं
का प्रयोग तथा
ज्यामितिय
आकारों (वृत्त, वर्ग, आयत, षट्कोण, अष्ट्कोण)
का प्रयोग
किया जाता है
जिसमें प्रतीकों
का विशेष अंकन
किया जाता है
जैसे- स्वास्तिक
(सतिया),
चरण, कलश, कमल
व देव-देवी के
आयुध आदि। चौक
का निर्माण
आंगन,
देहरी, द्वार, मंदिर, यज्ञ-स्थल, संस्कार-स्थल
आदि स्थलों पर
किया जाता है।
Singh (2020) चौक
के ऊपर ही
पाटा (पीढ़ा) के
ऊपर कलश
स्थापना व देव
प्रतिमा को
स्थापित किया
जाता है तथा
देवोत्थान
एकादशी पर भी
विष्णु जी से
सम्बंधित विशेष
चौक पूरकर ही
उन्हे जगाया
जाता है और
तभी से मांगलिक
कार्य
प्रारम्भ हो
जाते हैं। चित्र 1
लोककला
स्वयं में
शान्ति,
मर्यादा
एवं मंगल की
कामना को धारण
कर अपने मार्ग
पर आगे बढ़ी।
प्रत्येक
मनुष्य अपने
परिवार के
सौभाग्य, कल्याण
और मंगलकामना
के लिए अनेक
कृत्यों (जन्मोत्सव, मुण्डन, विवाह, व्रत, सत्यनारायण
की कथा आदि) को
करता व कराता
है,
मनुष्य
पूजा-पाठ, अनुष्ठान, व्रत, उपवास
आदि करके अपने
कार्य को
सिद्ध करना
चाहता है।
भारतीय
परम्परा के
अनुसार किसी
भी मांगलिक
कार्य को
आरम्भ करने से
पूर्व श्री
गणेश जी की
पूजा
अनिवार्य रूप
से की जाती है
तदुपरांत्
अन्य
देवी-देवता की
पूजा-अर्चना
करके
प्रार्थना की
जाती है जिससे
मांगलिक
कार्य बिना
किसी विघ्न के
सफलता पूर्वक
सपन्न हो जाए।
विभिन्न
मांगलिक
अवसरों पर चौक
पूरने का
रिवाज शुभ
माना गया है
इन चौक पूरनों
में मांगलिक चौक, कल्याणकारी
चौक,
संस्कार चौक, व्रत
त्योहार चौक
अनिवार्य रूप
से बनाते हैं
जिसे गेरू, सूखा
आटा (गेहूं व
चावल),
हल्दी, अहपन
(पीसे हुए
चावल का घोल), फूलों, गाय
के गोबर आदि
के माध्यम से
बनाते हैं। चौक को
प्रयोजन के
अनुसार इन्हे
निम्नलिखित
भागों में
बांटा जा सकता
है- मांगलिक चौक: मांगलिक
कार्य को तिथि, माह, पक्ष
(शुक्ल,
कृष्ण), नक्षत्र, गणना
के अनुसार किए
जाने का विधान
है। चौक का
निर्माण
मांगलिक
अवसरों (विवाह, गृहप्रवेश, वर्षगांठ, छठी
आदि) पर किया
जाता है विवाह
में सगाई, तिलक, द्वार-पूजा, मण्डप
(मड़वा) आदि में
सूखे आटे व
हल्दी से चौक
पूरते हैं गृह
प्रवेश,
वर्षगांठ, जन्मदिन
के अवसरों पर
पाटा पर कलश
स्थापित करने
हेतु भूमि को
गोबर से लीपकर, स्वच्छ
व साफ करके
भूमि पर
अलंकरण किये
जाने का विधान
होता है इसे
ही मांगलिक चौक
पूरना कहते
हैं। चित्र 2
कल्याणकारी
चौक: यह
धार्मिक
दृष्टि ये
महत्वपूर्ण
है। चौक
देवी-देवता को
आसन देने के
लिए प्रयोग
किया जाता है
जैसे- किसी
विशेष
अनुष्ठान, सत्यनारायण
की कथा,
श्रीमद्
भागवत कथा, अखण्ड
रामायण पाठ व
अन्य विशेष
पूजा-पाठों में
मूर्ति
स्थापित करने
वाले स्थान पर
चौक का
निर्माण किया
जाता है इसके
साथ ही इन
अनुष्ठानों
में कलश
स्थापना, नवग्रह
पूजन,
अखण्ड दीप
प्रज्वलित, यज्ञ
वेदी को सजाने
हेतु भी चौक
पूरने को
कल्याणकारी
माना जाता है। संस्कार चौक: हिन्दू
धर्मानुसार
सोलह संस्कार
होते है जो जन्म
से ही आरम्भ
हो जाते हैं
लगभग सभी
संस्कारों
में चौक पूरने
का विधान
दिखाई देता
है। जन्म के
समय दीवार पर
शक्ति के
देवताओं को
अंकित कर दिया
जाता है
परिवारजनो के
विश्वास के
अनुसार देवता जच्चा
व बच्चा दोनों
की रक्षा आदि
करते हैं। Saxena & Saran (1993) छठी
(जन्म के छठे
के दिन) के
अवसर पर आटे से
चौक पूरकर उस
पर दीपक जलाया
जाता है तथा
बुआ बच्चे की
नजर उतारकर
काजल लगाने का
रिवाज करती है
इसे करने के
उपरान्त भाई
बहन को नेग
देता हैं व
अन्य महिलाएं
बधाई हेतु
सोहर गीत गाती
हैं। वही बरही
(जन्म के बारहवें
दिन) के अवसर
पर सोहर-गृह
से मुख्य द्वार
तक आटे से
पांच रेखाएं
बनाकर जोड़ा
जाता है और
मध्य में
वृत्त बनाया
जाता है।
अन्नप्राशन
एवं पाटी पूजन
में देव-स्थान
पर चौक बनाए
जाने का रिवाज
होता है।
उपनयन
संस्कारों
में चौक में
ओम,
स्वास्तिक, श्री
आदि प्रतीकों
से चतुष्कोण चौक
का निर्माण
किया जाता है।
ओउम,
वेद आरम्भ, संस्कार, स्वास्तिक
चौक में उपनयन
संस्कार और
श्री चौक पर
समावर्तन
संस्कार किये
जाते हैं। Gupta (2018) व्रत
त्योहार चौक: हिन्दू धर्म
में अनेक
त्योहार व
व्रत मनाएं जाने
की परम्परा है
और इन अवसरों
पर घर की वरिष्ठ
महिलाएं व
पुरोहित चौक
पूरने का
रिवाज करते
हैं। चौक
नवरात्री में
कलश स्थापना
हेतु,
नाग पंचमी
(गुड़िया) में
नाग पूजा हेतु, रक्षाबन्धन
में भाई के
लिए,
हरतालिका
तीज में गणेश, गौरी
व शिव की
मिट्टी से
निर्मित
प्रतिमा स्थापित
करने हेतु, गणेश
चतुर्थी में
श्री गणेश के
आगमन हेतु, करवा
चैथ में माँ
गौरी व
गंगा-यमुना, तुलसी
पौधा सुहाग
समाग्री आदि
का चित्रण, अहोई
अष्टमी में
अहोई माँ के
पूजन हेतु, दीपावली
में माँ
लक्ष्मी के
आगमन हेतु, गोवर्धन
में
गोवर्धनधारी
के पूजन हेतु, भईया
दूज में भाई
के लम्बी उम्र
के अनुष्ठान हेतु, छठ
में छठी मईया
के पूजन हेतु, देवोत्थान
एकादशी भगवान
विष्णु के
आगमन व तुलसी
पूजन हेतु, दशहरा
में शमी के
वृक्ष के पूजा
हेतु,
होली में
होलिका दहन
हेतु आदि
त्योहारों पर
भिन्न-भिन्न
व्रत चौक बनाई
जाती है, जिसे
आटा,
हल्दी, रोली, गेरू, गोबर
आदि से
निर्मित किया
जाता है। Kasliwal (2016) 2.
निष्कर्ष प्राचीन
काल से ही चौक
पूरने का
स्वरूप दिखाई
देता है जो आस्था
एवं विश्वास
के साथ
परम्परागत्
रूप से आज भी
भूमि व भित्ति
पर बनाए जाते
है इसे बनाने
का उद्देश्य
सुख-समृद्धि, सौन्दर्य, शुभता, मंगल
और कल्याण के
लिए भी बनाया
जाता है। यह जिस
स्थान व अवसर
विशेष पर बनया
जाता है वहाँ
भाव
अभिव्यक्ति
व्यक्त कर
सौन्दर्यात्मकता
को भी बढ़ा
देता है।
प्रतीकों के
गूढ़ दर्शन, कलात्मक
मूल्यों एवं
सौंदर्य के
तत्वों को सरलता
से आत्सात्
किया जा सकता
है। चौक के
स्वरूप में
स्थानीय
भिन्नता
दिखाई देती है
लेकिन इसे
बनाने का भाव
एक ही होता है
तकनीकी
कौशलता में
उपलब्धियों
के बावजूद इन
लोककलाओं के
रूपाकार इतने
सहज,
सरल व
सर्वग्राही
है इसी कारण
ही शायद यह
अपने मूल को
आज भी बचाए
हुए है।
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESGupta, H. (2018). Chowk Purna, Lucknow :
Uttar Pradesh Hindi Sansthan, 27. Gupta, H. (2018). Indigenous Arts. Rajasthan : Hindi Ganth Academy, 5. Jaitly, A. (2012). Kalaon Ka Manas Manthan. Prayagraj : Nawsakshar sansthan, 52. Kasliwal, M. (2016). Lalit Kala Ke Adharbhut Shidhant. Jaipur : Bharti' Rajasthani Hindi
Academy, 32. Saxena, S.B.L., & Saran, S.
(1993). Art Theory and Tradition. Bareilly :
Prakash Book Depot, 71,73,75. Singh, R.S. (2020). Lok Riti-Riwaj, Uttar Pradesh : State Lalit Kala Acadmey, 6.
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