ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

THE STYLISTIC BEAUTY OF RABINDRANATH TAGORE'S PAINTINGS रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों का शैलीगत सौन्दर्य

The Stylistic Beauty Of Rabindranath Tagore's Paintings

रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों का शैलीगत सौन्दर्य

Dr. Poonam 1Icon

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1 Associate Professor (Painting), Mahatma Gandhi Balika Vidyalaya (PG) College, Firozabad, Uttar Pradesh, India

 

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ABSTRACT

English: The poetry of Rabindranath Tagore, which enlighten and gradually flowered in his heart, opens new forms of expressions and dimensions, much like the bright rainbow, which spreads hundreds of colors across the sky following rain. Rabindranath Tagore's writing subsequently embodies these novel forms. As soon as he realized the possibilities of these forms, he began etching them onto his canvas.

Rabindranath Tagore made enchanting paintings with simple, basic, clear, and distinct lines, without adhering to any traditional style, just like a primitive man. He painted meticulously. His medium varied according to the subject and theme of his work. Instead of using synthetic colors, he experimented with natural ones. In the field of painting, he is noted for not adhering to any certain traditional style but paintings to express his spiritual self.

 

Hindi: जिस प्रकार वर्षा के पश्चात् सूर्योदय पर सतरंगी इन्द्रधनुष का आकाश में स्वतः ही प्रस्फुटन होने पर उसके सप्तरंगों द्वारा आकाश में एक नई आभा का जन्म होता है, उसी प्रकार रवीन्द्रनाथ की कविताओं में से एक नवीन मूक अभिव्यक्ति कला के रूप में प्रस्फुटित हुई। जिसने अपने पहले परिचय में ही रवीन्द्रनाथ को आत्मविभोर कर, उनके हृदय में असीम ऊर्जा का प्रस्फुटन किया। धीरे-धीरे रवीन्द्र ने अपनी कलम की नोंक के क्रूर आघातों द्वारा उत्पन्न अस्पष्ट से रूपों को मूर्त रूप प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। काव्य-रूपात्मक आकृतियों ने सर्वप्रथम रवीन्द्र के चित्रतल पर स्थान ग्रहण किया। इन अस्पष्ट से रूपों में रूचि उत्पन्न होते ही रवीन्द्र ने अपने मनोवेगों को चित्रतल पर उकेरना प्रारम्भ किया। रवीन्द्र ने सरल, संक्षिप्त व स्पष्ट रेखाओं द्वारा आदि-मानव के समान ही चित्र-चित्रांकित किए। चित्रकला के क्षेत्र में किसी परम्परागत शैली को न अपनाते हुए संक्षिप्त रेखाओं व रंगों द्वारा अपनी मूक अभिव्यक्ति की। रवीन्द्रनाथ टैगोर दिन-रात अनवरत् रूप से चित्र-सृजन के कार्य में लगे रहे। उनके चित्रित-चित्र, विषय के अनुरूप ही उनके माध्यम भी विभिन्नता लिए हुए थे। प्रयोगात्मक स्वरूप रवीन्द्र ने रासायनिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों को भी अपने चित्रतल पर स्थान दिया। उन्होंने चित्रकला के क्षेत्र में किसी भी परम्परागत शैली में बंध कर चित्रण-कार्य नहीं किया, वरन् अपनी आत्मिक सन्तुष्टि हेतु ही वे चित्रकर्म में लीन रहे।

 

Received 27 October 2022

Accepted 09 December 2022

Published 20 December 2022

Corresponding Author

Dr. Poonam, drpoonam1505@gmail.com

DOI 10.29121/shodhkosh.v3.i2.2022.231  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2022 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

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Keywords: Rabindranath Tagore, Stylistic Beauty, Contemporary Art, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शैलीगत सौन्दर्य, समकालीन कला

 


1.  प्रस्तावना

रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य-जगत में सूर्य की भाँति सृष्टि के उच्च-शिखर पर प्रकाशवान है, जिन्होंने अपने साहित्य व काव्य रूपी प्रकाश से संसार को प्रकाशमय करने के साथ ही साथ उसे नवीन परिवेश और नवीन साहित्य से भी सराबोर कर दिया। जिस प्रकार वर्षा के पश्चात् सूर्योदय पर सतरंगी इन्द्रधनुष का आकाश में स्वतः ही प्रस्फुटन होने पर उसके सप्तरंगों द्वारा आकाश में एक नई आभा का जन्म होता है, उसी प्रकार रवीन्द्रनाथ की कविताओं में से एक नवीन मूक अभिव्यक्ति का प्रस्फुटन स्वतः ही हुआ, जिसने अपने पहले परिचय में ही रवीन्द्रनाथ को आत्मविभोर कर, उनके हृदय में असीम ऊर्जा का प्रस्फुटन किया।

प्रारम्भिक इन्द्रधनुषी कला को रवीन्द्र ने बाल-सुलभ घटना मात्र मानकर उसकी आत्मा को स्पर्श नहीं किया, परन्तु धीरे-धीरे रवीन्द्र ने अपनी कलम की नोंक के क्रूर आघातों द्वारा उत्पन्न अस्पष्ट से रूपों को मूर्त रूप प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। ‘‘रवीन्द्र ने जो कुछ भी आंका है उसके छन्द में प्राणों का यह स्पन्दन, यह प्राणशक्ति इतनी तीव्र और प्रचुर है कि आज के युग के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठ कलाकारों की कलाकृतियाँ भी उसके सामने कुछ फीकी, कुछ निष्प्राण ही लगती हैं। रवीन्द्रनाथ के चित्रों में यदि और कोई गुण न भी होता तो केवल इस प्राणशक्ति की अभिव्यंजना के कारण ही उनसे आंखें हटाना असंभव होता Basu (2021)’’

काव्य-रूपात्मक आकृतियों ने सर्वप्रथम रवीन्द्र के चित्रतल पर स्थान ग्रहण किया। इन अस्पष्ट से रूपों में रूचि उत्पन्न होते ही रवीन्द्र ने अपने मनोवेगों को चित्रतल पर उकेरना प्रारम्भ किया। रवीन्द्र ने स्वयं कहा है, ‘‘अब तक मैं अपनी भावनाओं को साहित्य तथा संगीत में व्यक्त करने का अभ्यस्त रहा हूँ पर मेरी आत्माभिव्यक्ति के तरीके अपूर्ण रहे, अतैव प्रकटीकरण के लिए चित्रित रेखाओं का सहारा लेने के लिए आगे बढ़ रहा हूँ Gurtu (1969)।’’ रवीन्द्र ने सरल, संक्षिप्त व स्पष्ट रेखाओं द्वारा आदि-मानव के समान ही चित्र-चित्रांकित किए। चित्रकला के क्षेत्र में किसी परम्परागत शैली को न अपनाते हुए संक्षिप्त रेखाओं व रंगों द्वारा अपनी मूक अभिव्यक्ति की।

यूँ इस महाकवि ने अपनी सतरंगी कल्पनाओं की कूँची के वैभव से अपने जीवन में सैकड़ों चित्र-चित्रित किए। ‘‘उन्होंने बचपन में ड्राइंग या किसी चित्रण तकनीक का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था, बल्कि वे तो अपनी अंतर्नुभूतियों को रेखाओं में उभार कर अपने मन को एक भोले बालक की भांति बहलाते थे Gurtu (1969)।’’

रवीन्द्रनाथ टैगोर दिन-रात अनवरत् रूप से चित्र-सृजन के कार्य में लगे रहे। उनके चित्रित-चित्र, विषय के अनुरूप ही उनके माध्यम भी विभिन्नता लिए हुए थे। प्रयोगात्मक स्वरूप रवीन्द्र ने रासायनिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों को भी अपने चित्रतल पर स्थान दिया। उन्होंने चित्रकला के क्षेत्र में किसी भी परम्परागत शैली में बंध कर चित्रण-कार्य नहीं किया, वरन् अपनी आत्मिक सन्तुष्टि हेतु ही वे चित्रकर्म में लीन रहे। ‘‘उन्होंने किसी भी प्रकार के नियमों का पालन नहीं किया उनके चित्रांकन का तन्त्र और शैली पूर्ण व्यक्तिगत थी । Agrawal (2019)।’’

रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। रवीन्द्र ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति चाहे वह संगीत में हो, साहित्य में हो, काव्य में हो या फिर कला में सृजनात्मक ही की। रवीन्द्र में सृजनात्मक-पक्ष ईश्वरीय प्रदत्त था, क्योंकि यदि मानव में सृजनशीलता है तो ग्रहण करने के मार्ग स्वतः ही निश्चित हो जाते हैं। जे. कृष्णमूत्र्ति द्वारा व्यक्त विचार रवीन्द्र नाथ की कला पर पूर्णरूपेण लागू होते हैं, ‘‘यदि हममें कोई आन्तरिक ज्योति प्रज्ज्वलित है-कोई आनद है तो उसको व्यक्त करने का मार्ग स्वतः ही दिखाई देगा, अभिव्यक्ति के तरीकों का अध्ययन आवश्यक नहीं है Sakhlakar (1985) ।’’

रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों की शैलीगत सौन्दर्य की समीक्षा बताने के लिए उसके विभिन्न पक्षों का अध्ययन आवश्यक है-

1)     चित्रतल आधार

रवीन्द्रनाथ ने अपने चित्रों के चित्रतल आधार नाना प्रकार के कागज यथा-जलरंग, कागज़, कार्टेज, वाह्टसमैन, पोस्टर तथा अन्य प्रकार के मोटे-पतले कागजों को बनाया। उन्होंने सिल्क कपड़े व कैनवास का भी प्रयोग किया।

 

2)     वर्ण संयोजन

रवीन्द्रनाथ ने अपनी गम्भीर मानसिक वृत्ति के अनुरूप ही अपने चित्रों में वर्ण संयोजन का प्रयोग किया है। भारतीय कला समीक्षकों ने रवीन्द्रनाथ की वर्ण-संयोजन पद्धति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वर्ष 1930 ई. में जर्मनी में आयोजित रवीन्द्र के चित्रों की एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित व्यक्ति-चित्रों में प्रयुक्त वर्णों की चमक तथा स्पन्दन को अनुभूत कर, विदेशी समीक्षकों ने उनके द्वारा प्रयुक्त वर्ण योजना को आश्चर्यजनक एवं दुर्लभ बताया है Robinson (1989) ।

कुछ समय पश्चात् उन्होंने स्वतः फूलों से रंग तैयार कर चित्रण किया, जो उनकी अपनी अलग विशेषता थी। रवीन्द्रनाथ की अपने चित्रों में रंगांकन करने की पद्धति अपनी अलग थी। वह ‘‘चित्रों में फूल घिसकर फूल का रंग भरते, हल्दी से स्वर्ण की आभा दिखाने का प्रयत्न करते और प्रखर सूर्य की किरणें दिखाने के लिए कागज़ का वह स्थान रिक्त छोड़ देते ।Agrawal (2019)।’’

रवीन्द्र ने अपनी गम्भीर, मानसिक प्रवृत्ति के अनुरूप ही अपने चित्रों में विभिन्न प्रकार के भूरे, विभिन्न हरे, मटमैला पीला, काला, स्लेटी, फाख्ताई गहरा तथा हल्का लाल, नारंगी, हल्का पीला, सफेद आदि रंगों का प्रयोग विषयानुसार प्रतीकात्मक रूप से किया है। बाद में रवीन्द्रनाथ ने वर्ण के लिए विभिन्न प्रकार के मिश्रित उदासीन रंगों को अधिक पसन्द किया है। काहिया, विभिन्न हरे, नारंगी, मटियाले पीले तथा अन्य रंगों का प्रयोग किया है। रवीन्द्र ने सभी समकालीन प्रचलित माध्यमों यथा-जलरंग, टेम्परा, क्रेयॉन, पेस्टल तथा तैल रंग आदि से चित्र निरूपित किये हैं।

उपलब्ध चित्रों में रवीन्द्र द्वारा प्रयुक्त वर्ण-संयोजन को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।

प्रथम-हल्के रंग की पृष्ठभूमि पर गहरे रंग से अभिव्यक्ति अथवा विपरीत वर्ण संयोजन किया गया। Robinson (1989)

द्वितीय-गहरे रंग के चित्रों में गहरी ही पृष्ठभूमि अर्थात् एक ही वर्ण-संयोजन का प्रयोग कर प्रतीकात्मक रूप से भावाभिव्यक्ति को अधिक प्रभावपूर्ण बनाया गया है। Robinson (1989)

चित्रकार ने लाल वर्ण का प्रयोग विभिन्न प्रतीकात्मक रूप में किया है। नारी की मानसिक अवस्था को दर्शाने में रेखाएं, वर्ण एवं मोटे तूलिकाघात पूर्ण रूपेण सक्षम है। जैसा कि सर्वविदित है कि रवीन्द्र ने चित्रकला की कोई मौलिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी परन्तु उनके चित्रों का सूक्ष्मावलोकन करने पर स्पष्ट है कि टैगोर के चित्रों का वर्ण-संयोजन विश्व के चितेरों में अनुपम है।

 

3)     रेखांकन

रेखायें किसी चित्र का आधार हैं। ‘‘कला पक्ष के अन्तर्गत रेखा का प्रतीकात्मक महत्व है और वह रूप की अभिव्यक्ति व प्रवाह को अंकित करती है ।Agrawal (2018) ।’’ कलाकार की परस्पर उलझी हुई रेखायें उसके अन्तस् के सूक्ष्म से सूक्ष्म परन्तु सशक्त भावों की अभिव्यक्ति में सहायक हैं। रेखायें केवल सीमा-रेखा ही नहीं दर्शातीं, वरन् इनसे लय, गति व स्थूलता भी परिलक्षित होती है। प्रत्येक रेखा अपने में कुछ न कुछ भाव समेटे होती है। उदाहरणार्थ-जटिल रेखायें देखने में उलझन और सरल रेखायें शान्ति का भाव प्रकट करती हैं। ज्ञानी कलाकार इन रेखाओं के माध्यम से ही भावानुकूल छन्द प्रकट करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के लगभग सभी चित्र सहज, स्फूत्र्त, स्वच्छन्द तथा सूक्ष्म हैं। मन्द गति का प्रभाव तथा भावपूर्ण रेखायें ही उनके चित्रों को जीवन्त करने में सहायक हैं। अपने चित्रों में आवश्यकतानुसार कोमल, कठोर, मोटी-पतली विभिन्न प्रकार की रेखाओं का प्रयोग चित्रकार ने किया है। रवीन्द्र ने अपने समस्त चित्रों में चारित्रिक विशेषताओं, अवस्थाओं तथा मुख के विभिन्न अवयवों का प्रस्तुतीकरण प्रायः कलम तथा स्याही के माध्यम से ही किया है। वृद्धावस्था, चिन्तितता, उद्विग्नता के भावों को दर्शाने हेतु भी मुख्य रूप से रेखाओं का ही सहारा लिया गया है। इसी क्रम में नारी की उदासी का भी अत्यधिक भावपूर्ण अंकन सरल, आड़ी-तिरछी एवं वक्रीय रेखाओं द्वारा किया गया है।

रेखाओं की सहायता से चित्र-निरूपण में व्यक्ति के अन्तर्मन का जो चित्रण रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया है, वह कला-जगत् में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। अपनी विशिष्टता के कारण रवीन्द्र के रेखाचित्र उनकी अपनी मौलिक विशेषता बन गए हैं।

 

4)     चित्रण-विषय

रवीन्द्र ने अपने चित्रित-चित्रों में मानव-मन के चेतन, अचेतन और अद्धचेतन तीनों ही भागों को स्पर्श किया है। किन्तु चित्रों को देखने के पश्चात् ये स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि चित्रित-चित्र मानव-मन की अचेतन अवस्था से अधिक प्रभावित थे और इस अचेतन अवस्था का चित्रण करने के लिए रेखा एवं तूलिका के प्रत्यावर्तन सहायक रहे। ‘‘आपने सर्वप्रथम अस्पष्ट आकृतियों के अस्पष्ट चित्र बनाए Parimoo (2008) ।’’ शनैः-शनैः रवीन्द्र अपने जीवन को पूर्णरूपेण कला के प्रति समर्पित करते गए रवीन्द्रनाथ टैगोर के पशु-पक्षी चित्र भी अधिकतर कल्पना पर ही आधारित हैं परन्तु कला की दृष्टि से अनुपम हैं Parimoo (2008) ।’

रवीन्द्र के व्यक्ति-चित्रों में नारी व पुरूष दोनों के ही चित्र अत्यन्त प्रभावी व भाव प्रवण है। रवीन्द्र ने दृश्य-चित्रों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव का सूक्ष्म निरीक्षण कर, क्षण-क्षण में परिवर्तनीय प्राकृतिक सौन्दर्य की सम्पदा को अपने चित्रों में संजोया है। प्रकृति-चित्रण बहुत ही मर्मस्पर्शी तथा सजीव है। रवीन्द्र अपने प्रत्येक चित्र-विषय में सिद्धहस्त रहे हैं।

 

5)     आकृति-निरूपण

काव्य शिरोमणि रवीन्द्रनाथ टैगोर काव्य-रचना से चित्रकारिता की ओर उन्मुख हुए। अपनी काव्य-रचना में अप्रत्याशित रूप से लकीरों द्वारा काटे गए वाक्य मूत्र्त अथवा अमूत्र्त रूप लेते गए, जिन्हें देखकर कवि-हृदय लकीरों के जाल से मुक्त करने में जुट गए। इस प्रकार अनायास ही आड़ी-तिरछी रेखाओं के मध्य फंसे चित्र को उन्होंने जीवन प्रदान किया। रवीन्द्र द्वारा अनेकों अमूत्र्त चित्र बनाए गए हैं। इनको चित्र तो कहा जा सकता है परन्तु ये न तो व्यक्ति चित्र हैं और न ही पशु-पक्षी चित्र Robinson (1989)।

इसी क्रम में रवीन्द्र के मूत्र्त चित्र भी सुनियोजित हैं। इन चित्रों में दो चश्म चेहरे, डेढ़ चश्म चेहरे, सवा चश्म चेहरे, एक चश्म चेहरे सभी प्रकार की मुखाकृतियाँ चित्रित की गयी हैं। रवीन्द्र के चित्रों का सूक्ष्मावलोकन करने के पश्चात् उनका चित्रकला की हर पद्धति से गहराई से जुड़ा होना दर्शाता है। उनके चित्रों में त्रिआयामी भाव भी उपलब्ध है Robinson (1989)।

 

6)     भावाभिव्य´जना

आधुनिक चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता या उनका शैलीगत सौन्दर्य भावों की अभिव्य´जना ही है। आपके द्वारा निरूपित अधिकांश व्यक्ति-चित्र तात्क्षणिक प्रेरणा का परिणाम लगते हैं, किन्तु उनमें परिवर्तन या उद्देश्यपूर्ण प्रतिपादन के प्रयत्न नहीं हैं। मानव-चित्र में भारतीय जीवन-दर्शन एवं आशा-आकांक्षा का दर्शन है। उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष की गहरी अनुभूतियाँ दृष्टिगत होती हैं। उनके चित्रों के अवलोकन के पश्चात् दर्शक के नैसर्गिक भावों को स्पर्श कर उत्सुकता के भाव को जागृत करने की असीम शक्ति है। रवीन्द्र के चित्रों में दर्शक रसानुभूति को प्राप्त करता हुआ आनन्द-सागर में गोते लगाता है। रसदशा को प्राप्त करने का भाव ही रवीन्द्र के चित्रों का वैशिष्ट्य पक्ष है। उनके चित्रित रूपों की भाव-भंगिमायें व रेखायें अनुपम हैं जो उनके चित्रों की व्य´जना को वैशिष्ट्य प्रदान करने में सहायक रही हैं।

 

7)     संयोजन व्यवस्था

किसी भी कार्य को सुनियोजित पद्धति से प्रस्तुत करना ही संयोजन कहलाता है। ‘‘संयोजन दो अथवा अधिक तत्त्वों की मधुर योजना को कहते हैं । Agrawal (2018) ।’ यद्यपि रवीन्द्र ने अपने चित्रों में चित्रकला के किसी भी सिद्धान्त का अनुसरण नहीं किया है लेकिन फिर भी उनके चित्र संयोजन की दृष्टि से टिप्पणी रहित हैं। रवीन्द्र के चित्रों में जिस प्रकार चित्र-तत्त्व यथा-रेखा, रूप, वर्ण व तान का संयोजन है, उससे रवीन्द्र चित्रकला के अन्तर्मन के मार्मिक ज्ञाता प्रतीत होते हैं। फलतः रवीन्द्र के चित्रों में सहयोग, सामंजस्य, सन्तुलन, प्रभावोत्पादकता, प्रवाह, प्रमाण स्वतः ही परिलक्षित होते हैं।

 

8)     सहयोग

जीवन के विभिन्न पक्षों को स्पर्शित करते हुए रवीन्द्र ने दृश्य-रूपों का सहयोगात्मक पक्ष सफलता पूर्वक निरूपित किया है। वर्ण, प्रमुख आकृति तथा पृष्ठभूमि का तालमेल ही चित्र की आत्मा है।

 

 

 

9)     सामंजस्य

रवीन्द्र द्वारा चित्रित सभी व्यक्ति-चित्र सहज स्फूत्र्त रेखाओं द्वारा सामंजस्य पूर्ण बन पड़े हैं। मुखाकृति को भावपूर्ण बनाने हेतु मुख्य रूप से आवृत्त रेखाओं का आलम्बन लिया गया है Parimoo (2008) । सन्तुलनः रवीन्द्र द्वारा चित्रित चित्रों में सभी तत्त्व इस प्रकार निहित रहते हैं कि वे चित्रतल पर समुचित रूप से प्रत्यक्षतः अवतरित भी रहते हैं। रवीन्द्र ने सम्यक् विन्यास पर आधारित लगभग समस्त चित्रों में चित्रतल के केन्द्र को प्रमुख मानते हुए आकृति को सम्मुख मुद्रा में अंकित कर सन्तुलन मुद्रा में बनाये रखा है।

 

10)   प्रभाविता

प्रथम आधुनिक भारतीय चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों का मुख्य प्रभाव दृष्टि बन्धन है। रवीन्द्र ने अपने चित्रों में प्रभाविता उत्पन्न करने हेतु आकृतियों को कहीं पूर्ण, कहीं केवल मुख, कहीं धड़ तक तो कहीं कमर तक का भाव दर्शाया है। ये सभी विविधतापूर्ण आकृतियाँ प्रेक्षक की दृष्टि को बांधने में पूर्णतया समर्थ हैं।

 

11)  प्रवाह

प्रवाह युक्त चित्र में नेत्र को कष्टदायक विरोधाभास का सामना नहीं करना पड़ता। रेखायें, रूप, वर्ण, तान सभी मिलकर प्रवाह को उत्पन्न करते हैं। रवीन्द्र के चित्रों का आधार ही लय है। अपने इस मन्तव्य को रवीन्द्र ने स्वयं स्पष्ट किया है, ‘‘मेरे चित्र रेखाओं में आवृत्त मेरी काव्यात्मकता है। यदि भाग्य से मेरे चित्र मान्यता प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, तो यह प्राथमिक स्तर पर रूप में लय के महत्व के कारण होना चाहिए, जो परम् सत्य है, यह किसी विचार की व्याख्या या किसी सत्य के प्रस्तुतीकरण के कारण नहीं । Agrawal (2016) ।’’

 

12)  परिप्रेक्ष्य

रवीन्द्र के प्राकृतिक दृश्यों को देखने से ज्ञात होता है कि चित्रों में परिप्रेक्ष्य का ध्यान विशेष रूप से रखा गया है। प्राकृतिक चित्रण सरल एवं सादा है। प्राकृतिक चित्रण में दूरी, नजदीकी, ऊँचाई और निचाई का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। दूर के दृश्यों को छोटा तथा धुंधला बनाया गया है। इसी क्रम में पंक्तिबद्ध पेड़ों के दृश्यों के चित्रण में पास के पेड़ बड़े व स्पष्ट एवं दूर के छोटे व धुंधले बनाये गये हैं Robinson (1989)। भारत के प्रथम आधुनिक चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का चित्रांकन कला जगत् के किसी भी सिद्धान्त का मोहताज़ नहीं है। उन्होंने चित्र-निरूपण प्रक्रिया में परम्परागत नियमों एवं सिद्धान्तों का अनुपालन नहीं किया है। रूप, सादृश्य, छाया-प्रकाश तथा त्रिआयामी प्रभावों की भी पूर्ण अवहेलना की है। उन्होंने चित्र को मात्र रंग एवं रेखाओं का संयोजन माना है। उनकी चित्रण-शैली ने उन्मुक्त एवं स्वच्छन्द गति से विचरण कर, विभिन्न सम्वेदनाओं की अनुभूति कर, अन्तर्मुखी होकर, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर, सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति को रूप एवं आकार में बांधकर प्राणवान किया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की अभिव्यक्ति की शैली अन्य सम-सामायिक कलाकारों से भिन्न होते हुए भी अद्भुत है। रवीन्द्र की कलात्मक अभिव्यंजना भावात्मक, व्यक्तिगत, भारतीय एवं निश्चित रूप से आधुनिक है।

 

13) पृष्ठभूमि

रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रारम्भिक चित्रों की पृष्ठभूमि उनके द्वारा लिखी हुई कवितायें ही थीं। कविताओं में ही हुई काट-पीट रूपों में परिवर्तित होने लगी, जो चित्रों के रूप में उनके समक्ष अपनी एक पहचान  लगी। तदोपरान्त पृष्ठभूमि उनके चित्रों में एक विशिष्ट स्थान लेने लगी।

 

 

 

 

2.  निष्कर्ष       

रवीन्द्र की चित्रकला शैली के दो मुख्य प्रकार हैं, बिन्दु द्वारा रूपाकार व नुकीले बिन्दुओं पर समाप्त होने वाले कोणीय चित्र। लयात्मक कुंडलित काट-पीट लेखनी अथवा तूलिका द्वारा अकल्पित आकारों की निर्मित पृष्ठतल पर अथवा चित्रफलक पर निरन्तर होती रही है। ये रूप समूची पृष्ठभूमि पर एक अनन्य लोक के स्वामी के रूप में पृष्ठभूमि पर जड़ रूप में रूपायित हुए हैं। पृष्ठभूमि व रूपाकार इस प्रकार आपस में गुँथे हुए हैं कि एक दूसरे में विलीन से हो गए हैं। बिन्दु रूपक पृष्ठभूमि व कुण्डलीय पृष्ठभूमि पर रूपाकार रोयेंदार, धुंधले व धब्बेदार प्रतीत होते हैं। बिन्दु रूपाकार और चक्राकार रेखायें एक अनहोनी रीति द्वारा स्पन्दित होकर चित्रफलक पर स्पष्ट परिलक्षित होती है। रेखांकन के साथ ही साथ रंगांकन की पद्धति में पृष्ठभूमि पर चैड़े तूलिकाघातों द्वारा एक ही रंग की रंगतों व कहीं कहीं अन्यान्य रंगों की रंगतों व रंग संगतियों के गाढ़े व हल्के रंग की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। इस सम्पूर्ण विवेचन से उनके चित्रों की शैलीगत सौन्दर्य का स्वरूप स्पष्ट होता है किन्तु रवीन्द्रनाथ एक ऐसे सृजनशील मस्तिष्क के कलाकार हैं जिनके चित्रों की शैली को किसी सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता।

 

CONFLICT OF INTERESTS

None. 

 

ACKNOWLEDGMENTS

None.

 

REFERENCES

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Agrawal, and Kishore, G. (2019). Bharatiya Chitrakala Ka Alochnatmak Itihas (Kala Aur Kalam), Sanjay Publication, 249.

Agrawal, R. A. (2018). Fundamentals of Plastic Art (Roopprad Kala Ke Mooladhar), International Publication House, 13, 55.

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Sakhlakar, R. V. (1985). Aadhunik Chitrakala Ka Itihas, Rajasthan Hindi Granth Academy, 346.

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