ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
ARTISTIC ANALYSIS OF HANDCRAFTED HORSES DEDICATED TO LOKDEVTA BABA RAMDEVJI लोकदेवता बाबा रामदेवजी को अर्पित हस्तशिल्पिय घोड़ों का कलात्मक विश्लेषण 1 Research Scholar, Fine Art and Painting,
Jai Narain Vyas University, Jodhpur, Rajasthan, India 2 Professor, HOD, Fine Art and Painting, Jai
Narain Vyas University, Jodhpur, Rajasthan, India
राजस्थान
की भूमि
लोककला और
लोकदेवताओं
की जननी के
रूप में सदैव
ही विश्व
प्रसिद्ध रही
है। जहां हमें
लोककला
परम्परा के
रूप में
हस्तकलाओं की
संतरंगी
छटाओं के
दिग्दर्शन
होते है, वही
लोकदेवताओं
के रूप में
उनके चमत्कार, शूरवीरता, और
उनकी कर्तव्यपरायण
के कई किस्से
आज भी बड़ी ही
श्रद्धा के
साथ सुने व
सुनाये जाते
है।
‘‘राजस्थान
जहां अपनी शौर्य
पूर्ण गाथाओं, बलिदानी
रक्त और
परम्पराओं के
कारण याद किया
जाता है। वही
अपनी प्राचीन
हस्तकलाओं और
उद्योगों की
अद्वितीयता
के कारण सदैव
स्मरण किया
जाता है। Maharishi (1994)
राजस्थान के
लोगों में लोकदेवताओ
के प्रति गहन
आस्था व
श्रद्धा देखी
जा सकती है।
लोगों में
इनके प्रति
विश्वास और
आस्था वंश
परम्परा के
आधार पर नई
पीढ़ी में भी
हस्तानांतरित
होती रहती है।
आधुनिक और
तकनीकी युग
में भी इनका
पूजन किया
जाना लोगों
में इनके
प्रति अटूट आस्था
के भाव है, जो
कि समय की
बहती हुई धारा
के साथ और भी
ज्यादा
प्रगाढ़ होते
जा रहे है।
राजस्थान में
कई चमत्कारिक, मनोकामना
पूर्ण और कष्टों
को दूर करने
वाले
लोकदेवताओं
की पूजा की
जाती है।
जिनमें ‘‘बाबा
रामदेवजी‘‘ का
पूजन अति विशिष्ठ
महत्व रखता
है। पश्चिमी
राजस्थान के
जैसलमेर जिले
का ‘‘रामदेवरा‘‘(रूणिचा
क्षेत्र) में
बना लोकदेवता
‘‘बाबा रामदेवजी‘‘
का मन्दिर
(समाधि स्थल)
इनके पूजन, चमत्कारिक
परचे और
‘‘मनौती‘‘ अथवा
‘‘मन्नत‘‘ की
पूर्णता के
लिए विख्यात
रहा है। बाबा
रामदेवजी को
भारत राष्ट्र
के राजस्थान, गुजरात
और
मध्यप्रदेश
के अलावा भी
कई राज्यों
में ‘पूजा‘
अथवा ‘माना‘
जाता है।
रामदेवजी ने बाल्यकाल
से ही कई
चमत्कारिक
परचे दिये है।
जिनमें कपड़े
से घोड़े का
हस्तशिल्प
बनाने के
सम्बन्ध में
‘दर्जी को
दिये गये
परचे‘ का
विशेष महत्व
है। ऐसी कई
कहानियाँ, किस्से
और
किवदन्तियाँ
भी रही है
जिसमें इनके
द्वारा दिये
गये
परचों(चमत्कार)
का बखान किया
जाता है।
‘‘बाबा
रामदेवजी‘‘ के
द्वारा मनौती
पूर्ण होने पर
भक्तजन इनको कपड़े
से बना घोड़ा
अर्पित करते
है। भक्तजन
इनके मन्दिर
अथवा अपने घर
से ही अपने
किसी विशिष्ठ
कार्य की
पूर्णता के
लिए ‘‘मनौती‘‘
अथवा ‘‘मन्नत‘‘
मांगते है।
मांगी गई
‘‘मनौती‘‘ अथवा
‘‘मन्नत‘‘ पूर्ण
हो जाने पर
भक्तजन इनके
प्रिय वाहन
घोड़ा बनवाकर अर्पित
करते है। लोककला के
अन्तर्गत
कपड़ों से कई
प्रकार के
कलात्मक हस्तशिल्प
बनाये जाने की
परम्परा रही
हैं। इनमें से
ही एक प्राचीन
लोककला
परम्परा के
अनुसार ‘‘बाबा
रामदेवजी को
चढ़ाये जाने
वाले कलात्मक
घोडों के रूप
में‘‘ भी देखी
जा सकती है।
‘‘लोककलाओं का
सम्बन्ध
मूलतः लोक की
धार्मिक मान्यताओं
और आस्थाओं से
जुड़ा रहा हैं।
यही कारण है
कि इन कलाओं
में निरतंर एक
प्राणवत्ता मिलती
है। अन्यथा वे
कभी की काल
कलवित हो जाती।
हमारी
धार्मिक
मान्यताओं ने
ही इन लोककलाओं
को स्थायित्व
प्रदान किया
है। Bhanawat (1974) राजस्थान
के जैसलमेर
जिले में
स्थित
‘‘रामदेवरा‘‘
अगस्त माह में
आकर्षण का
विशेष
केन्द्र होता
है। अगस्त के
भादवा माह में
यहां पर लगने वाला
मेला
साम्प्रदायिक
सद्भावना के
द्योतक के रूप
में जाना जाता
है। रामदेवरा
(रूणिचा
क्षेत्र) में
‘‘भादवा माह के शुक्लपक्ष
की द्वितीया
से दशम‘‘ तक भरे
जाने वाले
‘‘लोकदेवता
बाबा
रामदेवजी‘‘ के
इस मेले में कपडे़
से बने घोड़ों
के साथ ही
पंचरंगी
ध्वजा (नेजा)
का भी अत्यधिक
महत्व रहता
है। आमजन अपने
किसी विशिष्ठ
कार्य की
पूर्णता के
लिए की कपड़े
से बनी ध्वजा
अथवा घोड़ा
चढ़ाने की ‘‘मनौती‘‘
अथवा ‘‘मन्नत‘‘
मांगते है।
मनौती अथवा मन्नत
पूरी होने के
बाद,
मनौती
मांगने वाला
व्यक्ति कपड़े
का घोड़ा बनवाकर
उसे अपने
कन्धे पर
उठाकर अपने
निवास स्थान
से जैसलमेर
जिले में
स्थित
रामदेवरा
(रूणिचा
क्षेत्र) में
बने लोक देवता
बाबा
रामदेवजी के
धाम पर पदयात्रा
कर अर्पित
करते है। 2. उद्भव एवं विकास लोकदेवता
बाबा
रामदेवजी का
जन्म
भाद्रपक्ष की
दूज
(द्वितीया) को
विक्रम संवत 1409
तंवर राजपूत
वंश में हुआ
था। लोक देवता
बाबा रामदेवजी
को राजस्थान
की आम भाषा
में ‘पीरों के
पीर‘
‘रामसापीर‘ और
‘रामापीर‘ के
नाम से भी
पुकारा जाता
है। बाबा
रामदेवजी को
घोड़ें चढ़ाने
की प्रथा अति
प्राचीन है।
बाबा
रामदेवजी को
अर्पित किये
जाने वाले
कपडें से बने
घोड़ों के
सम्बन्ध में
कई प्रकार की
जानकारी
मिलती है जो
कि निम्न
प्रकार से है-
प्रचलित कथा
के अनुसार ‘‘एक
दिन एक
घुड़सवार
रामदेवजी के
सामने से
गुजरा तो
रामदेवजी ने
घोड़ा लाने की
हठ की तो माता
मैणादे ने एक
दर्जी को
बुलवाकर उसे
कीमती कपड़ें घोड़ा
बनाने के लिए
दिया। दर्जी
ने कपड़ें के घोड़ें
के अन्दर
फटे-पुराने
कपड़ें भर दिए।
रामदेवजी उस कपडे
के घोड़ें पर
बैठे तो घोड़ा
आसमान में उड़
चला रामदेवजी
के माता-पिता
बड़े दुखी हुए उन्होंने
दर्जी को जादू
का घोड़ा बनाने
के अपराध में
कैद कर लिया।
दर्जी ने
रामदेवजी से
प्रार्थना की तो
रामदेवजी, माता
मैणादे के
आंगन में
खेलते हुए
मिले और उनका
घोड़ा आंगन में
घास खाता हुआ
मिला।
रामदेवजी के
चमत्कार से
दर्जी को उनके
घोड़ें के
अन्दर ‘खोटा‘
(पुराना) और
बाहर ‘उजला‘
(सफेद) करने का
फल मिला।
दर्जी को कैद
से छोड़ दिया
गया इस परचे
के कारण दर्जी
ईमानदारी से
कार्य करने
लगा,
जिस पर एक
बहुत ही
सुन्दर भजन भी
गाया जाता है। Salvi (2009)
रामदेवजी के
इसी परचे और
उनको घोड़ा प्रिय
पशु होने के
कारण भक्तगण
मनौती अथवा
मन्नत की
पूर्णता पर
उनको घोड़ा
अर्पित(चढ़ाते)
करते है। इसी
संन्दर्भ में
जोधपुर जिले
के प्रताप नगर
क्षेत्र में
स्थित नेशनल
हैण्डलूम से
लेकर टेम्पो
स्टेण्ड तक का
नजारा बड़ा ही
मनोरम होता है।
यह स्थान
मार्च से
अगस्त माह तक
आकर्षण का
विशेष
केन्द्र रहता
है। सड़क का
फुटपाथ लोक देवता
बाबा
रामदेवजी को
चढ़ाये जाने
वाले छोटे व
बडे़ कलात्मक
घोडों से सुसज्जित
रहता है।
घास-फूस, सफेद
व रंग-बिरंगे
कपडे़,
माला, मोती, कोर, तुर्रियाँ, ऊन
की लटकन आदि
से शृंगारित घोड़ें
हस्तशिल्पियों
की कलात्मक
कारीगरी के
प्रतीक बन
जाते है। जिन्हें
देख हर कोई
इनकी ओर
अनायास ही
आकर्षित होता
है,
इसी वजह
से इनकी मांग
प्रत्येक
वर्ष बढ़ती ही
जा रही है।
हस्तशिल्पियों
द्वारा बनाये
जा रहे इन
घोड़ों का बड़ा
आकार,
कद-काठी व
लावण्यता
वास्तविक घोड़ों
की अनुभूति
कराते है।
घोड़ें बनाने
का यह कार्य
बहुत ही मेहनत
एवं कुशल
कारीगरी वाला
होता है, जिसे
हर कोई
व्यक्ति नही
कर सकता है। 3. हस्तशिल्पी प्रेमाराम जी से भेंटवार्ता हस्तशिल्पी
प्रेमाराम जी
भाट से
भेंटवार्ता
करने पर इस
सम्बन्ध में
कई प्रकार की
महत्वपूर्ण
जानकारियाँ
प्राप्त हुई।
इन्होंने बताया
कि मारवाड़ की
प्राचीन
मान्यतानुसार
राजस्थान के
लोग बाबा
रामदेवजी के मन्दिर
में जाकर या
अपने घर से ही
किसी निश्चित
अथवा विशिष्ठ
काम के लिए
मन्नत अथवा
मनौती मांगते
है। मांगी गई
मन्नत अथवा
मनौती पूर्ण
हो जाने पर
श्रद्धालु
अपनी श्रद्धा
के अनुसार बाबा
रामदेवजी को
कपड़े से बना
घोड़ा चढ़ाते हैं।
‘‘रामदेवरा
में भक्तजन
अपनी मनौती
पूरी हो जाने
पर कपड़े के
घोड़े चढ़ाते
है। Salvi (2009) बाबा
रामदेवजी को
अर्पित किये
जाने वाले कपड़े
से कलात्मक
घोडे़ बनाने
का काम मैंने
मेरे पिताजी
से सीखा। मुझे
कठपुतली और
घोड़ें बनाने का
काम करते हुए
लगभग 50 से 55 वर्ष हो चुके
हैं। मैं आज
भी इस कार्य
से जुडा हुआ
हूँ और मेरी
देख-रेख में
यहाँ पर लगभग 20
से 25 अन्य
हस्तशिल्पी घोड़ें
बनाने का काम
करते हैं। इन
कलात्मक
घोड़ों को बनाने
में महिला व
पुरूष दोनों
ही हस्तशिल्पियों
की बराबर ही
भागीदारी
देखी जा सकती
है। घोड़ें के
जीव बनाने से
लेकर उसके
पूर्ण आकार
प्रदान करने
और घोड़ें पर
प्लास्टिक की
पन्नी लगाने
तक का सबसे
अंतिम कार्य
पुरूष
हस्तशिल्पीयों
के द्वारा ही
किया जाता है।
कार्यरत
पुरुष
हस्तशिल्पियों
में भरत, सुरेश, राहुल, नौरंग, रणछोड़, राजा, रोहित, राजू
आदि है। वही
महिला
हस्तशिल्पियों
में लता, सुनिता, सुशीला, और
मंजू देवी है
जो पुरूषों के
साथ ही बनाये
गये इन घोड़ों
पर कपड़े की
सिलाई और उनका
शृंगार करने
का कार्य करती
हुई उन्हे
पूर्णता
प्रदान करती
है। इसी
संदर्भ में
हस्तशिल्पी
प्रेमारामजी
ने बताया कि
इन घोड़ों को
बनाने का यह
कार्य केवल जोधपुर, जैसलमेर, रूणिचा
और पोकरण
क्षेत्र में
ही किया जाता
है। जिनमें
सर्वाधिक बड़े
और कलात्मक
घोड़े जोधपुर
में ही बनाये
जाते है, जबकि
अन्य जगहों पर
सिर्फ छोटे
घोड़े ही बनाये
जाते है।
हमारे यहां पर
1 फीट से लेकर 4
फीट तक के
छोटे आकार
वाले घोड़ों की
मांग ज्यादा
रहती है।
हस्तशिल्पी
प्रति घोड़ा
सामग्री और
मेहनताना
सहित 1 हजार रूपये
फीट के हिसाब
से बनाते है।
मनौती पूरी हो
जाने पर
भक्तजन अपनी
श्रद्धा के
अनुसार
जोधपुर,
रूणिचा
अथवा पोकरण
में बने इन
कलात्मक
घोड़ों को खरीद
कर पदयात्रा
करते हुए जाते
है और ‘‘रामदेवरा‘‘
में बाबा
रामदेवजी के
मन्दिर में इन
घोड़ों को
अर्पित करते
हैं। 4. प्रयुक्त सामग्री हस्तशिल्पी
प्रेमारामजी
और सुरेश जी
ने भक्तजनों
की मनौती अथवा
मन्नत की
पूर्णता के
पश्चात्
लोकदेवता
बाबा
रामदेवजी को
चढ़ाये जाने वाले
कलात्मक घोड़ों
को बनाने में
प्रयुक्त
सामग्री के
सम्बन्ध में
भी
महत्वपूर्ण
जानकारी दी। इन्होंने
बताया कि घोड़ें
को बनाने के
लिए कई प्रकार
की सामग्री की
आवश्यकता
होती है जो कि
हमें इसी
क्षेत्र से प्राप्त
हो जाती है।
हस्तशिल्पी
इन सभी वस्तुओं
का उपयोग
क्रमानुसार
कर छोटे-बड़े
घोड़ों को बनाता
है। जिनकी
प्रयुक्त
सामग्री
निम्न प्रकार
से है- 1)
बाँस की खप्पचियाँ।
2) घास-फूस। 3)
सफेद एवं
रंग-बिरंगे
कपडे़।
4) रंग-बिरंगे
मोतियों की
मालाएं। 5)
सुनहरी
कोर। 6) रंग-बिरंगे
धागे व ऊन। 7)
प्लास्टिक
पन्नी। 8) प्लास्टिक
टेप। 9)
कृत्रिम
आँखें। 10) वेलवट आदि। 5. निर्माण विधि हस्तशिल्पी
अपने आस-पास
के बाजारों से
घोड़ें बनाने
की सामग्री की
खरीद करते है।
ये लोग भक्तजन
के द्वारा
दिये गये ऑर्डर
अथवा अपने
विवेक के आधार
पर भी छोटे व
बड़े घोड़ें
बनाने का
कार्य करते
रहते हैं।
जिसे व्यक्ति
विशेष,
मांगी गई
अपनी मनौती की
पूर्णता के
बाद अपनी-अपनी
श्रद्धा के
अनुसार
हस्तशिल्पिीयों
से इन घोड़ों
को खरीदते
अथवा बनवाते
है। कपडे़ से
कलात्मक घोडा
बनाने में
हस्तशिल्पी
कुछ चरणों का
निर्धारण
करता है।
हस्तशिल्पी
निर्धारित
किये गये
चरणों के
अनुरूप चलते
हुए घोड़ों को
आकार देने का
कार्य निम्न
चरणों के
द्वारा सम्पन्न
करता है। 5.1. प्रथम चरण प्रथम चरण
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
होता है, जिसमें
सर्वप्रथम
‘‘घोड़े का जीव‘‘
बनाया जाता है।
इस ‘‘जीव‘‘ का
सम्बन्ध घोड़ें
की आत्मा से
लगाया जा सकता
है। बाँस की
पाँच खप्चियों
को घास के साथ
सूतली की डोरी
से आपस में
जोडते हुए ‘‘घोड़ें
का जीव‘‘ बनाया
जाता है। इस
जीव में लगी
पाँच बाँस की
खप्चियों का
सम्बन्ध
पंचमहाभूतों
जैसे- पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, एवं
वायु से लिया
जा सकता है। चित्र 1
चित्र 2
5.2. द्वितीय चरण इस चरण
में
हस्तशिल्पियों
के द्वारा
‘‘जीव‘‘ के ऊपर
घास-फूस को एक मोटे
धागे की
सहायता से
लपेटते हुए
घोड़े को आकार
देने का कार्य
किया जाता है।
घोडे़ं के छोटे
व बडे़
अलग-अलग आकार
व नाप होते
हैं,
अतः इनके
आकार व नाप के
अनुरूप ही
घास-फूस को लगाते
हुए धागे
लपेटे जाते
है। इस कार्य
को बहुत ही
सावधानी व
मजबूती के साथ
करना पड़ता है।
जिसमें
सर्वप्रथम घोड़ें
की कद-काठी
एवं बाद में
उसके मुंह को
बनाते हुए
घोड़ें को
मूर्तरूप
दिया जाता है।
चित्र 3
चित्र 4
चित्र 5
5.3. तृतीय चरण इस तृतीय
चरण के कार्य
में घास-फूस
से घोडे़ं की
कद-काठी बन
जाने के बाद, उस
पर प्लास्टिक
टेप की सहायता
से प्लास्टिक पन्नी
लगाई जाती है।
प्लास्टिक
पन्नी,
भादवे के
महीने में
होने वाली
बारिश से घोड़ें
को भीगने से
बचाती है। यदि
घास-फूस को
लगाने के बाद घोड़ें
पर प्लास्टिक
पन्नी नहीं
लगाई जाती है, तो
बारिश से
भीगने के बाद 25
किलोग्राम का
घोड़ा 100 किलोग्राम
तक का हो जाता
है। जिसे
गन्तव्य स्थान
पर ले जाने
में अत्यधिक
कठिनाई होती
है। चित्र 6
5.4. चतुर्थ चरण चतुर्थ
चरण में
प्लास्टिक
पन्नी लगाने
का कार्य
पूर्ण हो जाने
के बाद
हस्तशिल्पियों
के द्वारा घोड़ें
पर पूर्ण रूप
से सफेद अथवा
हरे रंग के
कपड़ें की
सिलाई का
कार्य किया
जाता है जो कि
पूर्ण रूप से
ग्राहक के ऑर्डर
और पंसन्द पर
निर्भर करता
है। सफेद कपड़े
की सिलाई के
बाद घोड़ें की
साज-सजावट का
कार्य किया
जाता है, जिसमें
कई तरह के
रंग-बिरंगे
कपड़े (सफेद, हरा, केसरिया
व लाल आदि)
मोती,
मालाओं, चमकीली
कोर,
तुर्रा, ऊन
से बनी लटकन व
सजावटी
आभूषणों आदि
से घोडे़ का
शृंगार किया
जाता है। घोड़ें
की साज-सजावट
का कार्य
पुरूषों के
साथ-साथ महिला
हस्तशिल्पियों
के द्वारा भी
किया जाता है, चूंकि
महिलायें इस
सजावट के
कार्य में
पूर्णतया
पारंगत होती
है। चित्र 7
चित्र 8
6. घोड़ों का आकार व वजन घोड़ें
बनाने वाले
हस्तशिल्पी
प्रेमारामजी
भरत व सुरेश
ने इनके आकार
और वजन के
सम्बन्ध में
कई महत्वपूर्ण
बातों से अवगत
कराया और
बताया कि छोटे
से छोटा घोड़ा 6
इंच का बनाया
जाता है।
जिसका वजन
लगभग 250 ग्राम तक का
होता है, और
बड़े से बड़ा
घोड़ा 10 से 12 फीट तक बनता
है,
जिनका वजन
लगभग 40 से 45 किलोग्राम
के आस-पास
होता है।
ज्यादा बड़ी
साईज के घोड़ें
हम पूर्णरूप
से ग्राहक के ऑर्डर
और एडंवास जमा
कराने पर ही
बनाते है। 10
से 12 फीट के घोड़ें
बहुत ही कम
लोग बनवाते
हैं। इन घोड़ों
का वजन भी
बनाये गये
घोड़ें के आकार
के समान ही
होता है। जहां
छोटे और कम
वजन वाले घोड़ों
को ले जाने
में सुलभता
रहती है तो, वही
बड़े आकार वाले
और ज्यादा
वजनी घोड़ों को
निश्चित
स्थान पर लेकर
जाने में
कठिनाई होती
है।
हस्तशिल्पी
सुरेश जी ने
इन घोड़ों के
सम्बन्ध में
कुछ विशेष बात
यह भी बतलाई
कि बड़े घोड़े को
ले जाने के
लिए घोडे़ की
कद-काठी के
अनुरूप ही
व्यक्ति की
लम्बाई अथवा
कद-काठी होनी
चाहिए। जैसे
कि- 10 फीट का घोड़ा
है तो उसे ले
जाने के लिए
व्यक्ति की
लम्बाई भी 5
फीट से ऊपर ही
होनी चाहिए, नहीं
तो संतुलन
नहीं बनेगा और घोड़ें
के पाँव
बार-बार जमीन
को स्पर्श
करते रहेगें जिससे
व्यक्ति को
चलने में
कठिनाई होती
है। चित्र 9
7. समय के साथ बदलती घोडें बनाने की तकनीक व स्वरूप लोक देवता
बाबा
रामदेवजी की
मनौती की
पूर्णता के
बाद घोड़ा
अर्पित करने
की यह प्राचीन
परम्परा, आज
भी जीवित है।
बाबा
रामदेवजी के
प्रति लोगों
में आस्था व
विश्वास के
फलस्वरूप आज
भी कलात्मक घोड़ें
बनाने का
कार्य किया जा
रहा है,
जिसमें
समय के साथ इन
घोडों को
बनाने तकनीक व
कुछ बदलते
स्वरूप भी
देखने को मिले
है जिन्हे निम्न
प्रकार से
देखा जा सकता
है- 1) पूर्व समय
में जो घोड़ें
कपड़े की कतरन
से बनाये जाते
थे,
जबकि आज
के समय में
फलों की
पेटियों में
आने वाली सूखी
घास और थर्माकोल
से घोडें
बनाये जा रहे
है। 2) पूर्व समय
में केवल छोटे
घोड़ें ही
ज्यादा बनाये
जाते थे, जबकि
वर्ष 2010-2011 से कुछ बड़े
घोड़ें भी
बनवाये जाने
की एक हौड़ सी
लग गई है। 3) पूर्व समय
में बनवाये
जाने वाले घोड़ों
की ऊँचाई जहाँ
केवल 1 से 4 फीट तक ही
सीमित थी, वही
वर्तमान समय
में वर्ष 2022
से बनवाये जा
रहे घोड़ों की
ऊँचाई में
परिवर्तन आया
है। 4) जहाँ पूर्व
समय में छोटे घोड़ें
को ले जाना
ज्यादा
पंसन्द करते
थे,
वही आज के
समय में
युवावर्ग कुछ
ज्यादा बड़े
घोड़ों को ले
जाने में ही
अपनी शान
समझते है।
जिनकी ऊँचाई 10
से 12 फीट तक की
होती है। 8. क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान नौजवान युवकों से वार्ता क्षेत्रीय
भ्रमण के
दौरान यह देखा
गया कि नौजवान
युवक अपने
पूरे जोश, उमंग
व उल्लास के
साथ 7 से 12 फीट तक के
घोड़ों को अपने
कंधे पर उठाकर
बाबा रामदेवजी
का ‘‘जै कारा‘‘
लगाते हुए
चलते है। इन
युवकों के साथ
वार्तालाप
करने पर कई
सारी महत्वपूर्ण
जानकारियाँ
प्राप्त हुई।
इन्होनें बताया
कि कुछ लोग इन
घोड़ों को अपनी
घरेलू परम्परा
के आधार पर, वही
कुछ मनौती की
पूर्णता पर और
कुछ लोग इन्हे
अपनी श्रद्धा
और शौकिया रूप
में भी लेकर
जाते है। इन
युवकों में
ज्यादा बड़े
घोड़ों को ले
जाने की आपसी
हौड,
इन घोड़ें
के बड़े आकार
के रूप में भी
देखी जा सकती
है। रास्ते
में जहां भी
विश्राम और
भोजन के लिए
ठहरते है, घोड़े
को खड़ा करने
से पूर्व पहले
वहां की भूमि को
पानी से
पवित्र किया
जाता है। इन
घोड़ों को ले
जाने वाले
नौजवान
युवकों की एक
टोली होती है, जिसमें
10 से 12 लड़के ही होते
हैं। ये
नौजवान युवक
इन घोड़ों को
बारी-बारी से
उठाकर चलते
हैं जिससे
रुणिचा धाम तक
पहुँचने में
आसानी रहती
है। ‘भादवा
सुदी बीज से
लेकर दशम‘ तक
लगभग 7 से 8 दिन तक
रुक-रुक कर
पैदल चलते है।
ये लोग लगभग 190
से 200 किलोमीटर का
सफर तय करते
हुए जोधपुर से
जैसलमेर जिले
के ‘‘रामदेवरा‘‘
(रुणिचा धाम)
तक ले जाकर इन
घोड़ों को बाबा
रामदेवजी को
अर्पित हैं। चित्र 10
9. रामदेवरा रूणिचा से प्राप्त जानकारी रामदेवरा
रूणिचा धाम का
भ्रमण और यहां
के लोगों से
भेंटवार्ता
करने पर इन
घोड़ों के
सम्बन्ध में
कई
महत्वपूर्ण
जानकारियां
प्राप्त हुई।
बाबा
रामदेवजी की
सेवा करने
वालों ने बताया
कि भक्तजनों
द्वारा
‘‘मनौती की
पूर्णता के बाद‘‘
ये लोग अपनी
श्रद्धानुसार
कपड़े,
लकड़ी, चाँदी
के साथ ही
असली जीवित
घोड़ें भी
अर्पित करते
है।
‘‘लोकदेवता
बाबा
रामदेवजी की
सामाधि पर
जालौर के गाँव
गुड़ा बालोतान, तहसील
आहौर के
ओमप्रकाश
खत्री जो कि
मुंबई में
सोने-चाँदी के
व्यापारी
हैं। ये अपने
परिवार के साथ
यहां आकर के
चाँदी से बने
इस 150 किलो वजनी
घोडे़ को
अर्पित किया।
जिसमें 100
किलो चाँदी और
50 किलो अन्य
जरूरी धातु
लगी लगी हुई
है। इसी घोड़े
के साथ उन्होंने
20 किलो चाँदी
का एक छोटा
घोड़ा भी
चढ़ाया(अर्पित करना)
है। उन्होंने
बताया कि उनके
पड़दादा और दादा
की मान्यता पर
इन घोड़ों को
चढ़ाया है। Travelers Offered 150 Kg of
Silver Horse at Baba Ramdev’S Tomb (2022)भक्तों के
द्वारा लाये
गये घोड़ों को
यहां बने बड़े हॉल
में सुरक्षित
रख दिया जाता
है। प्रदेश
में जहां कहीं
भी बाबा
रामदेवजी का
मन्दिर बनता
है,
उस मन्दिर
में रूणिचा
धाम से अखण्ड
ज्योति ले जानी
पड़ती है। इसी
अखण्ड ज्योति
के साथ श्रद्धालु
अपनी
इच्छानुसार
रखे हुए बाबा
के भेंट पात्र
में कुछ भेंट
को डालकर कपड़े
से बना एक
घोड़ा भी साथ
में ले जाते
है,
और
नवनिर्मित
मन्दिर में रख
दिया जाता है।
बताया जाता है
कि ऐसा करने
पर ही बनाये
जा रहे बाबा
रामदेवजी के
रूप में
मन्दिर को
स्थापित किया
हुआ माना जाता
है। चित्र 11
चित्र 12
10. निष्कर्ष
यही कहा जा सकता है कि हस्तशिल्पियों के द्वारा बनाये जा रहे ये कलात्मक घोड़ें लोककला और परम्परा के रूप में अति प्रचीनता लिए हुए है। परम्परागत कार्य के अन्तर्गत घोड़ें बनाने का यह कार्य अत्यंत ही कलात्मक और अनूठा है, जिसमें समय के साथ कई नवीन आयाम जुड़ते गये हैं। इन लोगों के लिए यह कलाकर्म लोककला के रूप में सृजन के नवीन अवसरों, कुशल कारीगरी और कलात्मकता के साथ ही जीविकोपार्जन के साधनों की उपलब्धता भी करवाती है। हस्तशिल्पी की कुशल कारीगरी के द्वारा बनाये गये घोड़ों की साज-सजावट का कार्य पूर्ण हो जाने पर कपड़ें और घास-फूस से बने घोड़ें भी वास्तविक घोडे़ की अनुभूति करवा देते है। वास्तव में देखा जाये तो यह कुशल कला की कारीगरी ही है, जो हस्तशिल्पी के मन-मस्तिष्क के भावों को मूर्त रूप में बदल देती है। घोड़े बनाने व खरीदने के पीछे छुपी हुई आस्था को भी बचाया जाना चाहिए, ताकि समय परिवर्तन के साथ भावी पीढ़ी भी इस लोककला परम्परा, घोड़ा बनाने की तकनीक और घोड़ा अर्पित करने की प्राचीन परम्परा से परिचित हो सकें। CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESBhanawat, M. (1974). Folk Art Values and References (1st ed.). Rajasthan : Bharatiya Lok Kala Mandal, Udaipur. Maharishi, H. (1994). Handicrafts of Rajasthan : Kshitij Publications Jaipur, Rajasthan. Salvi, S. (2009). Rajasthani Folk Culture and Folk Goddess – God. Rajasthan : West Zone Cultural Center Udaipur. Travelers Offered 150 Kg of Silver Horse at Baba Ramdev’S Tomb (2022, february13). Rajasthan : Danik Bhaskar Jodhpur.
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