ShodhKosh: Journal of Visual and Performing Arts
ISSN (Online): 2582-7472

STUDY ON MATERIAL USED IN KUMAUN FOLK ART कुमाऊँ की लोककला में प्रयुक्त सामग्रीः एक अध्ययन

STUDY ON MATERIAL USED IN KUMAUN FOLK ART

कुमाऊँ की लोककला में प्रयुक्त सामग्रीः एक अध्ययन

Dr. Sanjeev Arya 1 Icon

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1 Assistant Professor, Painting, Soban Singh Jeena University, Almora, India

 

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ABSTRACT

English: Kumaun region is situated in the eastern of Uttarakhand state. This part of eastern Uttarakhand is known as Kumaun region. Like other provinces, kumauan region if also famous for its folk art. Folk art of this region is named as ‘Aipan’. This folk art is quite similar to ‘Alpana’ and ‘Mandana’ which are famous folk styles from Bengal and Rajasthan. The most important colour used is white which is made by grinding rice into a fine powder, liquefied, and then painted using fingertips.  Folk life of people of kumaun has a balanced adaptation of dependence and utility with nature. Village life is very much affected by globalization and marketism and in today’s era of synthetic colours, acrylics, print and ceramics, it is necessary to study our experience, inspect it and then make it documented.

‘Aipan’ is mostly painted in kumaun households on the occasion of festivals, auspicious ceremonies and worships. “Since ancient times in Indian folk life, there has been a sense of worship towards the earth and so is the tradition of ‘Aipan’.  This tradition of painting aipan on the household walls during major ceremonies, festivals and marriages is age old.” Gupt (1960) Folk art is the cultural dignity of any nation. “Even in this limitation, the cultures have the same vision in their basic rule. Folk art is of national importance. By consolidating our culture, the land of folk art keeps moving forward at the same pace. There are no convex waves in it, there is no roaring index that is, the respect of the ocean is serious and infinite” Gairola (1990). Folk art is generally done using natural and accessible resources. Natural colours are considered pure.

Their folk art is filled with emotions of welfare, faith, and trust. These folk arts are not the art of any one individual, but the collective art expression of common people. The colours used by cave people during pre-historic times were black, white, red, and ochre. Colours were used in limited quantities which is seen in district caves of kumaun such as falsima, petshaal, lakhudiyar, lwethap, fadaknoli.

Colours such as red, ochre, white etc can be seen in these murals. In reference to use of colours in prehistoric times, Dr Premshankar Devidi has quoted: “limited

colours were used in the pre-historic times such as gerua, white, khadia, hironji and coal powder. These colours were prepared by grinding using stones. The surface used by these primitive artists were mainly walls and ceilings which were not bounded to a limited dimension. Dwivedi (2007)

 

Hindi: कुमाऊँ मध्य हिमालय में स्थित पूर्वी उत्तराखण्ड है। उत्तराखण्ड राज्य का यह पूर्वी भाग कुमाऊँ मंडल के नाम से जाना जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र भी अनेकों लोककला-प्रान्तों की तरह प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र की लोक अंकन शैली को ऐपण नाम से जाना जाता है। यह लोक अंकन शैली बंगाल की ‘अल्पना‘, राजस्थान की ‘मांडना‘ से अधिकांशतः मेल खाती है। प्रमुख रंगत सफेद है जो कि चावलों को पत्थर में पीसकर विस्वार के रूप में तैयार की जाती है, फिर अंगुलियों के पोरों से अंकन किया जाता है। लोक जीवन का प्रकृति के साथ निर्भरता और उपयोगिता का सन्तुलित अनुकूलन है। वर्तमान समय में गाँव भी वैश्विकरण एवं बाजारवाद से गहराई से प्रभावित है। आज के समय में एक्रेलिक रंग, सेन्थेटिक रंग, प्रिंट, टाइल्स, सेरेमिक के दौर में, आवश्यक है कि अपने अनुभव, अध्ययन और निरीक्षण को लिपिबद्ध किया जाये।

कुमाऊँ मंडल में प्रत्येक त्यौहार मांगलिक कार्यो, पूजा अर्चना प्रत्येक माह की संक्रांत को लोक अंकन का प्रयोग आंशिक या अधिकतम रूप में ग्रामीण घर-आँगन में किया जाता है। यह परंपरा प्राचीनकाल से ही विद्यमान है “भारतीय लोक जीवन में प्राचीन काल से ही धरती के प्रति अथाह पूजा भाव रहा है। पर्व, त्यौहार तथा विवाह-शादी के समय मंगल चिन्हों को दीवार तथा आँगन पर अंकित करने का पुराना रिवाज है।” Gupt (1960) “लोक कला किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक मर्यादा है। इस मर्यादा में अनुस्यूत भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ अपने मूल रूप में एक ही दृष्टिगत होती हैं। लोक कला का राष्ट्रीय महत्व है। हमारी सांस्कृतिक भाव भूमि को अभिसंचित करके लोक कला की धारा समान गति से निरंतर आगे बढती रहती है। इसमें उत्ताल तरंगे नहीं, गर्जन-तर्जन नहीं है, वह तो सागर के समान गंभीर और अन्नत है।“Gairola (1990) । लोक अंकन प्राकृतिक एवं सुलभ संसाधनों से किया जाता है। प्राकृतिक रंग शुद्ध व पवित्र माने जाते है। उनके लोक चित्रण में लोक कल्याण की भावना सदैव विद्यमान रहती थी जो, आस्था, विश्वास और आध्यात्म से ओत-प्रोत रहती है। यह लोक कलाऐं किसी एक व्यक्ति की कला नहीं है बल्कि लोकजन सामान्य की सामूहिक कला अभिव्यक्ति है।

प्रागैतिहासिक काल में मानव गुफाओं में जिन रंगों का प्रयोग करते थे, वे रंग काले, सफेद, लाल, गेरूआ थे। रंगो का प्रयोग सीमित रूप में किया जाता था जिनके प्रमाण यहाँ जनपद में प्राप्त गुफाओं फलसीमा, पेटशाल, लखुउड्यार, ल्वेथाप, फडकनौली आदि की भित्ति पर बने अंकन में देखा जा सकता है। इन भित्ति चित्रों में भी लाल, गेरूआ, सफेद आदि रंगो का प्रयोग किया गया है। प्रागैतिहासिक मानव द्वारा प्रयोग किये जाने वाले रंगो के सन्दर्भ में डॉ. प्रेमशंकर द्विवेदी ने लिखा है - “प्रागैतिहासिक चित्रों में सीमित रंगों का प्रयोग किया गया है जिसमें गेरू, सफेद, मिट्टी (खडिया), हिरौजी, कोयले की कालिख प्रमुख रंग थे। इन रंगों को पास की शिलाओं पर ही पीसकर तैयार किया जाता है। आदिम कलाकार का चित्रतल समस्त दीवार या छत होती थी। चित्रतल का कोई निश्चित सीमांकन नही होता था। Dwivedi (2007)

 

Received 25 May 2022

Accepted 20 June 2022

Published 25 June 2022

Corresponding Author

Dr. Sanjeev Arya, sanjeevarya.artist@gmail.com

DOI 10.29121/shodhkosh.v3.i1.2022.145  

Funding: This research received no specific grant from any funding agency in the public, commercial, or not-for-profit sectors.

Copyright: © 2022 The Author(s). This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.

With the license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download, reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work must be properly attributed to its author.

 

Keywords: Style, Utilization, Design, Botanical, Mineral, Painting, ‘Aipan’, ‘Chowki’, शैली, उपयोगिता, अलंकरण, वानस्पतिक, खनिज, रंगांकन, ऐपण चैकी


1.  प्रस्तावना

इस प्रकार प्रागैतिहासिक काल से ही आदिमानव भित्ति पर गेरू, काले व सफेद रंग से अंकन किया करता था। उसे गुफा में जहाँ स्थान प्राप्त होता, वही अंकन कर देता। उसने अंकन हेतु गुफा में शैलाश्रयों की छतों, दीवारों को स्वतंत्र चित्रपट के रूप में चुना। जो वर्तमान समय में जनपद में प्राप्त गुफाओं की भित्ति पर अंकित दिखाई देती है। रंगों के प्रभाव एवं आनन्द को तत्कालीन मानव को आभास हो गया था। प्राचीन समय में जब मानव ने भित्ति पर चित्रण किया तो वह चित्रण उसने काले रंग, सफेद रंग, लाल रंग से किया। प्राकृतिक रंगों में मानव का सर्वप्रथम खनिज रंगों से सम्पर्क हुआ। प्रागैतिहासिक मानव ने पुरापाषाण युग में पाषाण का ही उपयोग किया। यहीं से पाषाण के रंगो से परिचय हुआ। इन खनिज तत्वों का प्रयोग आदिमानव ने गुफाओं में रंगांकन और रेखांकन के लिए किया। कालान्तर में भारतीय रंग विधान में खनिज रंगों का भरपूर प्रयोग हुआ है।

“प्राचीन काल में प्राकृतिक स्रोत्रों से ही रंग तैयार करते थे उनमें मुख्य रूप से वानस्पतिक और खनिज रंग आते हैं। वानस्पतिक रंगों में पेड़-पौधों, फूल-पत्ती आदि से सम्मिलित हैं।”Krishna and Kusa (1992) प्राकृतिक रंगों द्वारा संपूर्ण कुमाऊँ मंडल में ज्योतिपट्ट मात्रकायें, ढिकारे, मुखाकृतियाँ, मूर्तियाँ, जन्मपत्री (कुडंली) और ऐपण आदि का अंकन किया जाता था। इन प्राकृतिक रंगों में खनिज एवं वानस्पतिक दोनों सम्मिलित होते थे। खनिज रंगों में लाल मिट्टी, गेरू, कमेट आदि है। वानस्पतिक रंगों में चावल साबुत, चावल पिसा चूर्ण चावल भीगा पिसा हुआ (विस्वार) हल्दी चूर्ण, पिठ्या चूर्ण और हल्दी घोल के रूप में रंगांकन हेतु प्रचलित रंग थे। लोकांकन में उपयोगिता एवं आवश्यकता को देखते हुए उपरोक्त प्राकृतिक रंगो के बारें में सूक्ष्मतः चर्चा निम्नवत हैः-

लाल मिट्टी:  गहरे लाल रंग की दोमट मिट्टी की खाने सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र में यदा-कदा पायी जाती है। ग्रामीण प्रायः इस मिट्टी की उपलब्धता के अनुसार कुदाल से खोदकर अपने घरों में विशेषतः पूजा स्थल, अन्न भण्डारण स्थल, चूल्हा और धिनाली (डेरी सामग्री) रखने के स्थान पर लिपाई करते थे। इसके ऊपर विस्वार (भीगे पिसे चावलों का घोल) से अंगुली के पोरों के माध्यम से ऐपण बनाये जाते थे। यह रंग एक चित्र के अंकन धरातल को तैयार करने का आधार रंग है।

गेरू: यह एक खनिज पदार्थ है। सामान्यतः लाल मिट्टी से अधिक गहरा रंग इसमें विद्यमान है। गेरू की खदानें कुमाऊँ क्षेत्र में नहीं है। यह एक बाजार में प्राप्त होने वाला खनिज पदार्थ है। शुभ अवसरों पर गेरू का घोल बनाकर पवित्र स्थलों पर रंगाई की जाती है। गेरू से तैयार अंकन स्थल पर ऐपण चैकी तथा पट तैयार किया जाते है। दीपावली के मौके पर सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र में दहलीज, पूजा स्थल, अन्न भंडार और ओखली आदि स्थानों पर गेरू का लेपन कर ऐपण बनाने की प्रथा आज भी प्रचलित है। गेरू ‘शुभ‘ का प्रतीक है। चित्र 1

चित्र 1

चित्र 1 ’गेरू’

 

विस्वार: सफेद रंग के चावलो कों पीसकर एक पतला घोल बनाया जाता है। इस सफेद रंग के घोल को अंगुलियों के पोरों से रंगांकन व रेखांकन किया जाता है। इस क्षेत्र में सूखे चावलों का प्रयोग रंगोली की तरह से सूखे रंगों के साथ प्रयोग किया जाता है। सफेद रंग प्रत्येक रंग में उजाला, चमक एवं ऊर्जा प्रवाहित करता है इस सम्बन्ध में डॉ. श्रोत्रिय ने लिखा है - “यद्यपि स्वेत का रंगत में स्थान नहीं है फिर भी तीन रूपों में प्रकाश का प्रभाव प्रेरणादायक तथा कोमल होता है। यह शुद्धता और पवित्रता का परिचायक है। शान्ति एवं सादगी के प्रतीक के रूप में स्वेत वर्ण माना जाता है। चित्र 2, चित्र 3”Shotriya (1991)

चित्र  2

चित्र 2 विस्वार से ’ऐपण’

Source https://devbhoomidarshan.in/aipan-kala/

 

चित्र  3

चित्र 3 विस्वार हेतु सूखे चावल

Source https://www.paktribune.com/news-details/rice-exports-increased-by-11-16-per-cent

 

कमेट: कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में कमेट नामक खनिज का प्रयोग घरों को उजला करने के लिए, तख्ती पर लेखन हेतु सफेद घोल के रूप मे प्रयोग होता आया है। “प्रागैतिहासिक मानव ने प्रकृति प्रदत्त गेरू, रामरज, कोयला तथा खड़िया आदि को ही रेखांकन और चित्रण का माध्यम बनाया है।”Gupt (1960) खड़िया ‘चूने पत्थर‘ का ही एक रूप है जो ‘कैल्साइट‘ से बना होता है। कमेट मुलायम चूना अर्थात् खड़िया का अति घुलनशील एवं मुलायम सफेद पदार्थ है। कुमाऊँ क्षेत्र में इसका उपयोग घरों की रंगाई के लिए या चावल के स्थान पर ‘गेरूए‘ धरातल के ऊपर सफेद अंकन के लिए किया जाता था।

हल्दी: यह एक वानस्पतिक प्राकृतिक रंग है। जहाँ हल्दी का प्रयोग भारत में खान-पान में किया जाता है। वहीं हल्दी का बहुउपयोगी पक्ष भी है। हल्दी से पीले रंग का उद्गम माना जाता है। कुमाऊँ क्षेत्र में ज्योति-पट्ट, कुडंली, चैकी-अलंकरण, चैकी अंकन में हल्दी के सूखे चूर्ण और तरल रंगो का प्रयोग किया जाता है। हल्दी मंगल का प्रतीक है। कुमाऊँ क्षेत्र में सभी शुभ अवसरों पर हल्दी से प्राप्त रंग का किसी ना किसी रूप में प्रयोग किया जाता है। चित्र 4

चित्र 4

चित्र 4 ’हल्दी’

Source https://dmvofficesnearme.com/top-10-turmeric-producing-states-in-india/

 

पिठ्या: पिठ्या सिंदूर के सादृश्य एक रक्त वर्ण चूर्ण है जिसका उपयोग सूखे चूर्ण और गीले रंग दोनों प्रकार से कुमाऊँ क्षेत्र के लोकांकन में किया जाता है। जन्मपत्री (कुडंली) के हाशियों का अलंकरण, लेखन, चित्रांकन आदि में पिठ्या के तरल रूप का प्रयोग किया जाता है। पिठ्या के चूर्ण रूप का प्रयोग। चित्र 5

चित्र 5

चित्र 5 पिठ्या

Source https://www.tradeindia.com/products/kumkum-powder-c7004531.html

 

चैकी निमार्ण और वेदी निमार्ण में किया जाता है। कुमाऊँ में अल्मोड़ा शहर का बना पिठ्या सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। पिठ्या का निर्माण प्रायः ब्राह्मण वर्ग द्वारा हल्दी, सुहागा और नींबू के बीच रसायनिक प्रक्रिया से तैयार किया जाता है। पिठ्या का लाल रंग रंगों में श्रेष्ठ माना जाता है। “लाल रंग सर्वाधिक सघन और आकर्षक रंगत है। ये रंग उत्तेजना, प्रसन्नता, उल्लास, क्रोध, संघर्ष, ऊष्णता, प्रेम आवेग आदि भावों का द्योतक है। हमारी प्राचीन शास्त्रीय लघु चित्रण कलाओं व जनमानस की लोककलाओं में इस रंग का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है”Kasliwal (2013)

 

2.  निष्कर्ष

“सम्पूर्ण भारत में संस्कारों, व्रतों, कथाओं आदि पर चैका पूरने की प्रथा है। संस्कारो आदि पर चैक, आटे, हल्दी, गुलाल आदि से भूमि पर बनाया जाता है। चैक पूरने का उद्देश्य चारों दिशाओं के देवताओं से शुभ कार्य सम्पन्न करने हेतु प्रार्थना की जाती है।”Arya (2016) कुमाऊँ में प्रचलित लोकअंकन शैली ‘ऐपण‘ के रूप में प्रसिद्ध है। कुमाऊँ क्षेत्र में शिव चैकी, दुर्गा चैकी, गणेश चैकी, दुलहर्घ चैकी, बेदी सांस्कारिक अनुष्ठानों में बनायी जाती है। इसमें सामान्यतः सूखे रंगों का प्रयोग किया जाता है। अन्य शुभ अवसर, त्यौहार और पर्व पर आवासीय भवन में मुख्य द्वार (खोली), सीढियां आंतरिक दीवारों के भू-क्षेत्र पर, पूजा स्थल, पवित्र चूल्हा, धिन्याली (डेरी उत्पाद क्षेत्र) धन सम्पति संदूक क्षेत्र, भकार (अन्न भण्डारण संदूक) और उखव (ओखली) की बाहृय परिधि पर लाल मिट्टी अथवा गेरू से धरातल लेपन के पश्चात् ऐपण देने की परम्परा है। ऐपण ‘मंगल‘ और ‘शुभ‘ का प्रतीक है। कुमाऊँ मंडल में अल्मोडा़, नैनीताल, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, द्वाराहाट, धारचूला ऐपण लोक अंकन शैली के प्रमुख केन्द्र रहे है। अल्मोड़ा शहर प्रारम्भ से ही सांस्कृतिक रूप से ही कुमाऊँ मंडल का प्रतिनिधित्व करता है।

अल्मोड़ा ऐतिहासिक रूप से सातवीं शताब्दी से क्रमशः कत्यूरी, चंद, गोरखा और वर्तानी शासन के आधिपत्य में रहा। सभी समय-समय पर विभिन्न विचारधारा, आस्था वाले शासकों का प्रभाव इस क्षेत्र के स्थापत्य, लोककलाओं और संस्कृति पर गहराई से पड़ा है। निष्कर्ष स्वरूप कुछ पंक्तियों में कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण कुमाऊँ की लोककलाओं ने अपने पारंपरिक रंग-विधान, आस्था और प्रतीकों के साथ 21वीं सदी के प्रारंभिक दशक तक कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन वर्तमान वैश्विकरण और बाजारवाद का प्रभाव कुमाऊँ की लोककलाओं पर दिखना प्रारम्भ हो गया है। प्रमाण स्वरूप वानस्पतिक एवं खनिज रंगों के स्थान पर सिन्थेटिक कलर, प्रिंट, स्टीकर, ब्रश, टाइल्स और अन्य सेरेमिक्स का प्रचलन बड़ता दिख रहा है। अंकन विधि और सामग्री, माध्यम और मूल रूपांकन में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। लोक अंकन में परम्परागत कलात्मक तत्वों का अभाव आकर्षक तो हो सकता है परन्तु मौलिकता विहीन भी।

 

CONFLICT OF INTERESTS

None. 

 

ACKNOWLEDGMENTS

None.

 

REFERENCES

Arya, S. (2016). Maru Bhoomi Ki Chitrakala and Ek Samagra Aadhyan. New Delhi : Adhayan Publishers and Distributers, 47.

Dwivedi, P. (2007). Bharatiya Chitrakala Ke Vividh Ayam. New Delhi : Kavery Book service,19.

Gairola, V. (1990). Bharti Chitrakala. Delhi : Choukhamba Sanskrit Publication, 249.

Gupt, J. (1960). Pragaitihasik Bhartiya Chitrakala. Delhi : National Publication House, 418, 426.

Kasliwal, M. (2013). Lalitkala Ke Adharbhut Siddhant. Rajasthan : Hindi Granth Academy, 69.

Krishna, B. and Kusa, S. (1992). Kumaum Ki Loka Kala or Parampra. Almora: Shri Almora Book Depot, 38.

Shotriya, S. (1991). Kala bodh avam Soundarya. U.P: Chhavi Prasashan, 74.

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