ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
STUDY ON MATERIAL USED IN KUMAUN FOLK ART कुमाऊँ की लोककला में प्रयुक्त सामग्रीः एक अध्ययन 1 Assistant Professor, Painting, Soban Singh Jeena University, Almora, India
इस प्रकार
प्रागैतिहासिक
काल से ही
आदिमानव भित्ति
पर गेरू, काले
व सफेद रंग से
अंकन किया
करता था। उसे
गुफा में जहाँ
स्थान
प्राप्त होता, वही
अंकन कर देता।
उसने अंकन
हेतु गुफा में
शैलाश्रयों
की छतों, दीवारों
को स्वतंत्र
चित्रपट के
रूप में चुना।
जो वर्तमान
समय में जनपद
में प्राप्त
गुफाओं की
भित्ति पर अंकित
दिखाई देती
है। रंगों के
प्रभाव एवं
आनन्द को
तत्कालीन
मानव को आभास
हो गया था।
प्राचीन समय
में जब मानव
ने भित्ति पर
चित्रण किया तो
वह चित्रण
उसने काले रंग, सफेद
रंग,
लाल रंग
से किया।
प्राकृतिक
रंगों में
मानव का सर्वप्रथम
खनिज रंगों से
सम्पर्क हुआ।
प्रागैतिहासिक
मानव ने
पुरापाषाण
युग में पाषाण
का ही उपयोग
किया। यहीं से
पाषाण के रंगो
से परिचय हुआ।
इन खनिज
तत्वों का
प्रयोग आदिमानव
ने गुफाओं में
रंगांकन और
रेखांकन के
लिए किया।
कालान्तर में
भारतीय रंग
विधान में खनिज
रंगों का
भरपूर प्रयोग
हुआ है। “प्राचीन काल
में
प्राकृतिक
स्रोत्रों से
ही रंग तैयार
करते थे उनमें
मुख्य रूप से
वानस्पतिक और
खनिज रंग आते
हैं।
वानस्पतिक
रंगों में
पेड़-पौधों, फूल-पत्ती
आदि से
सम्मिलित
हैं।”Krishna and Kusa (1992) प्राकृतिक
रंगों द्वारा
संपूर्ण
कुमाऊँ मंडल
में
ज्योतिपट्ट
मात्रकायें, ढिकारे, मुखाकृतियाँ, मूर्तियाँ, जन्मपत्री
(कुडंली) और
ऐपण आदि का
अंकन किया जाता
था। इन
प्राकृतिक
रंगों में
खनिज एवं वानस्पतिक
दोनों सम्मिलित
होते थे। खनिज
रंगों में लाल
मिट्टी,
गेरू, कमेट
आदि है।
वानस्पतिक
रंगों में
चावल साबुत, चावल
पिसा चूर्ण
चावल भीगा
पिसा हुआ
(विस्वार)
हल्दी चूर्ण, पिठ्या
चूर्ण और
हल्दी घोल के
रूप में
रंगांकन हेतु
प्रचलित रंग
थे। लोकांकन
में उपयोगिता
एवं आवश्यकता
को देखते हुए
उपरोक्त
प्राकृतिक रंगो
के बारें में
सूक्ष्मतः
चर्चा
निम्नवत हैः- लाल
मिट्टी: गहरे
लाल रंग की
दोमट मिट्टी
की खाने सम्पूर्ण
कुमाऊँ
क्षेत्र में
यदा-कदा पायी
जाती है।
ग्रामीण
प्रायः इस
मिट्टी की
उपलब्धता के
अनुसार कुदाल
से खोदकर अपने
घरों में
विशेषतः पूजा
स्थल,
अन्न
भण्डारण स्थल, चूल्हा
और धिनाली
(डेरी
सामग्री) रखने
के स्थान पर
लिपाई करते
थे। इसके ऊपर
विस्वार (भीगे
पिसे चावलों का
घोल) से
अंगुली के
पोरों के
माध्यम से ऐपण
बनाये जाते
थे। यह रंग एक
चित्र के अंकन
धरातल को
तैयार करने का
आधार रंग है। गेरू: यह एक खनिज
पदार्थ है।
सामान्यतः
लाल मिट्टी से
अधिक गहरा रंग
इसमें
विद्यमान है।
गेरू की खदानें
कुमाऊँ
क्षेत्र में
नहीं है। यह
एक बाजार में
प्राप्त होने
वाला खनिज पदार्थ
है। शुभ
अवसरों पर
गेरू का घोल
बनाकर पवित्र
स्थलों पर
रंगाई की जाती
है। गेरू से
तैयार अंकन
स्थल पर ऐपण
चैकी तथा पट
तैयार किया
जाते है।
दीपावली के
मौके पर
सम्पूर्ण
कुमाऊँ क्षेत्र
में दहलीज, पूजा
स्थल,
अन्न
भंडार और ओखली
आदि स्थानों
पर गेरू का लेपन
कर ऐपण बनाने
की प्रथा आज
भी प्रचलित
है। गेरू ‘शुभ‘
का प्रतीक है।
चित्र 1 चित्र 1
विस्वार: सफेद रंग के
चावलो कों
पीसकर एक पतला
घोल बनाया
जाता है। इस
सफेद रंग के
घोल को
अंगुलियों के
पोरों से
रंगांकन व
रेखांकन किया
जाता है। इस
क्षेत्र में
सूखे चावलों
का प्रयोग
रंगोली की तरह
से सूखे रंगों
के साथ प्रयोग
किया जाता है।
सफेद रंग
प्रत्येक रंग
में उजाला, चमक
एवं ऊर्जा
प्रवाहित
करता है इस
सम्बन्ध में डॉ.
श्रोत्रिय ने
लिखा है -
“यद्यपि स्वेत
का रंगत में
स्थान नहीं है
फिर भी तीन
रूपों में
प्रकाश का
प्रभाव
प्रेरणादायक
तथा कोमल होता
है। यह
शुद्धता और
पवित्रता का
परिचायक है।
शान्ति एवं
सादगी के
प्रतीक के रूप
में स्वेत
वर्ण माना
जाता है। चित्र 2, चित्र 3”Shotriya (1991) चित्र 2
चित्र 3
कमेट: कुमाऊँ के
ग्रामीण
क्षेत्रों
में कमेट नामक
खनिज का
प्रयोग घरों
को उजला करने
के लिए,
तख्ती पर
लेखन हेतु
सफेद घोल के
रूप मे प्रयोग
होता आया है।
“प्रागैतिहासिक
मानव ने प्रकृति
प्रदत्त गेरू, रामरज, कोयला
तथा खड़िया आदि
को ही रेखांकन
और चित्रण का
माध्यम बनाया
है।”Gupt (1960) खड़िया ‘चूने
पत्थर‘ का ही
एक रूप है जो
‘कैल्साइट‘ से
बना होता है।
कमेट मुलायम
चूना अर्थात्
खड़िया का अति
घुलनशील एवं
मुलायम सफेद
पदार्थ है।
कुमाऊँ
क्षेत्र में
इसका उपयोग
घरों की रंगाई
के लिए या
चावल के स्थान
पर ‘गेरूए‘
धरातल के ऊपर
सफेद अंकन के
लिए किया जाता
था। हल्दी: यह एक
वानस्पतिक
प्राकृतिक
रंग है। जहाँ
हल्दी का
प्रयोग भारत
में खान-पान
में किया जाता
है। वहीं
हल्दी का
बहुउपयोगी
पक्ष भी है।
हल्दी से पीले
रंग का उद्गम
माना जाता है।
कुमाऊँ
क्षेत्र में
ज्योति-पट्ट, कुडंली, चैकी-अलंकरण, चैकी
अंकन में
हल्दी के सूखे
चूर्ण और तरल
रंगो का प्रयोग
किया जाता है।
हल्दी मंगल का
प्रतीक है।
कुमाऊँ
क्षेत्र में
सभी शुभ
अवसरों पर हल्दी
से प्राप्त
रंग का किसी
ना किसी रूप
में प्रयोग
किया जाता है।
चित्र 4 चित्र 4
पिठ्या: पिठ्या
सिंदूर के
सादृश्य एक
रक्त वर्ण
चूर्ण है
जिसका उपयोग
सूखे चूर्ण और
गीले रंग दोनों
प्रकार से
कुमाऊँ
क्षेत्र के
लोकांकन में किया
जाता है।
जन्मपत्री
(कुडंली) के
हाशियों का
अलंकरण,
लेखन, चित्रांकन
आदि में
पिठ्या के तरल
रूप का प्रयोग
किया जाता है।
पिठ्या के
चूर्ण रूप का
प्रयोग। चित्र 5 चित्र 5
चैकी
निमार्ण और
वेदी निमार्ण
में किया जाता
है। कुमाऊँ
में अल्मोड़ा
शहर का बना
पिठ्या सर्वश्रेष्ठ
माना जाता है।
पिठ्या का
निर्माण प्रायः
ब्राह्मण
वर्ग द्वारा
हल्दी,
सुहागा और
नींबू के बीच
रसायनिक
प्रक्रिया से
तैयार किया
जाता है। पिठ्या
का लाल रंग
रंगों में
श्रेष्ठ माना
जाता है। “लाल
रंग सर्वाधिक
सघन और आकर्षक
रंगत है। ये
रंग उत्तेजना, प्रसन्नता, उल्लास, क्रोध, संघर्ष, ऊष्णता, प्रेम
आवेग आदि
भावों का
द्योतक है।
हमारी प्राचीन
शास्त्रीय
लघु चित्रण
कलाओं व
जनमानस की
लोककलाओं में
इस रंग का
प्रयोग
प्रचुर
मात्रा में
किया गया है”Kasliwal (2013) 2. निष्कर्ष “सम्पूर्ण
भारत में
संस्कारों, व्रतों, कथाओं
आदि पर चैका
पूरने की
प्रथा है।
संस्कारो आदि
पर चैक,
आटे, हल्दी, गुलाल
आदि से भूमि
पर बनाया जाता
है। चैक पूरने
का उद्देश्य
चारों दिशाओं
के देवताओं से
शुभ कार्य
सम्पन्न करने
हेतु
प्रार्थना की
जाती है।”Arya (2016) कुमाऊँ में
प्रचलित
लोकअंकन शैली
‘ऐपण‘ के रूप
में प्रसिद्ध
है। कुमाऊँ
क्षेत्र में
शिव चैकी, दुर्गा
चैकी,
गणेश चैकी, दुलहर्घ
चैकी,
बेदी
सांस्कारिक
अनुष्ठानों
में बनायी जाती
है। इसमें
सामान्यतः
सूखे रंगों का
प्रयोग किया
जाता है। अन्य
शुभ अवसर, त्यौहार
और पर्व पर
आवासीय भवन
में मुख्य द्वार
(खोली),
सीढियां
आंतरिक
दीवारों के
भू-क्षेत्र पर, पूजा
स्थल,
पवित्र
चूल्हा,
धिन्याली
(डेरी उत्पाद
क्षेत्र) धन
सम्पति संदूक
क्षेत्र, भकार
(अन्न भण्डारण
संदूक) और उखव
(ओखली) की बाहृय
परिधि पर लाल
मिट्टी अथवा
गेरू से धरातल
लेपन के
पश्चात् ऐपण
देने की परम्परा
है। ऐपण ‘मंगल‘
और ‘शुभ‘ का
प्रतीक है। कुमाऊँ
मंडल में
अल्मोडा़, नैनीताल, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, द्वाराहाट, धारचूला
ऐपण लोक अंकन
शैली के
प्रमुख
केन्द्र रहे
है। अल्मोड़ा
शहर प्रारम्भ
से ही सांस्कृतिक
रूप से ही
कुमाऊँ मंडल
का
प्रतिनिधित्व
करता है। अल्मोड़ा ऐतिहासिक रूप से सातवीं शताब्दी से क्रमशः कत्यूरी, चंद, गोरखा और वर्तानी शासन के आधिपत्य में रहा। सभी समय-समय पर विभिन्न विचारधारा, आस्था वाले शासकों का प्रभाव इस क्षेत्र के स्थापत्य, लोककलाओं और संस्कृति पर गहराई से पड़ा है। निष्कर्ष स्वरूप कुछ पंक्तियों में कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण कुमाऊँ की लोककलाओं ने अपने पारंपरिक रंग-विधान, आस्था और प्रतीकों के साथ 21वीं सदी के प्रारंभिक दशक तक कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन वर्तमान वैश्विकरण और बाजारवाद का प्रभाव कुमाऊँ की लोककलाओं पर दिखना प्रारम्भ हो गया है। प्रमाण स्वरूप वानस्पतिक एवं खनिज रंगों के स्थान पर सिन्थेटिक कलर, प्रिंट, स्टीकर, ब्रश, टाइल्स और अन्य सेरेमिक्स का प्रचलन बड़ता दिख रहा है। अंकन विधि और सामग्री, माध्यम और मूल रूपांकन में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। लोक अंकन में परम्परागत कलात्मक तत्वों का अभाव आकर्षक तो हो सकता है परन्तु मौलिकता विहीन भी।
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESArya, S. (2016). Maru Bhoomi Ki Chitrakala and Ek Samagra Aadhyan. New Delhi : Adhayan Publishers and Distributers, 47. Dwivedi, P. (2007). Bharatiya Chitrakala Ke Vividh Ayam. New Delhi : Kavery Book service,19. Gairola, V. (1990). Bharti Chitrakala. Delhi : Choukhamba Sanskrit Publication, 249. Gupt, J. (1960). Pragaitihasik Bhartiya Chitrakala. Delhi : National Publication House, 418, 426. Kasliwal, M. (2013). Lalitkala Ke Adharbhut Siddhant. Rajasthan : Hindi Granth Academy, 69. Krishna, B. and Kusa, S. (1992). Kumaum Ki Loka Kala or Parampra. Almora: Shri Almora Book Depot, 38. Shotriya, S. (1991). Kala bodh avam Soundarya. U.P: Chhavi Prasashan, 74.
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