ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
The
Motifs of Parmara Period Parvati Sculptures Stored in the Ujjain Vikram Kirti
Mandir Museum उज्जैन विक्रम कीर्ति मंदिर संग्रहालय में संग्रहीत परमारकालीन पार्वती प्रतिमाओं का रूपांकन Khushboo Batham 1 1 Research Scholar, Government Maharani
Laxmi Bai Girls P.G. College Indore, Kila Bhavan, Indore (M.P.), Devi Ahilya Vishwavidhyalaya, Indore
(M.P.), India 2 Professor, Government Maharani Laxmi
Bai Girls P.G. College Indore, Kila Bhavan, Indore (M.P.), Devi Ahilya Vishwavidhyalaya, Indore
(M.P.), India
प्राचीनकाल
में राज्य की
राजधानी
’अवन्ति नगर’
जिसे वर्तमान
में ’उज्जैन’
नाम से जाना
जाता है। यह
नगर धार्मिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक
तथा भौगोलिक
महत्त्व लिये
हुए दक्षिण-पश्चिम
क्षिप्रा नदी
के पूर्वी तट
पर स्थित है।
इस नगर के
पौराणिक, साहित्यिक
महत्त्व के
कारण अनेक नाम
है। जो कालांतर
में
परिवर्तित
होते रहे है।
जैसे संस्कृत
भाषा में
’उज्जयिनी’, पाली
तथा प्राकृत
भाषा में
’उजेनी’,
अरबी भाषा
में ’उजीन’ नाम
से उज्जैन नगर
को जाना जाता
था Garg (2012)। वही बहुत
प्राचीन नगर
होने के कारण
भी इसे अन्य
नाम दिए गए है
जो समयानुसार
परिवर्तित
होते रहे है।
जिनमे-अवंतिका, पद्मावती, कुशस्थली, भागवती, हरण्यावती, अमरावती, कुमुदवती, प्रतिकल्पा, उज्जयिनी, इन्द्रपुरी, विशाला।
इसके आलावा भी
उज्जैन
परिक्षेत्र में
निर्मित
मंदिर जिनके
शिखरों पर
स्वर्ण कलश का
व स्वर्ण धातु
का उपयोग
धार्मिक
परंपरा व
सौंदर्यता के
लिए किया गया
है। इस वजह से
उज्जैन नगर को
’कनकश्रृंगा’
के नाम से भी
जाना जाता है। यह नगरी
सात
मोक्षदायिनी
नगरी में से
एक है जहाँ 7
सागरतीर्थ, 28
तीर्थंकर, 84
महादेव,
30 शिवलिंग, अष्टभैरव, एकादश
रूद्रस्थान, विभिन्न
देवी देवताओं
के मंदिर अनेक
जलकुंड है Garg (2012)। इसी के साथ
उज्जैन की
भौगोलिक
स्थिति भी उल्लेखनीय
है
खगोलशास्त्रियों
की मान्यता है
की उज्जैन नगर
पृथ्वी और
आकाश के मध्य
बसा नगर है ।
अतः यह नगर
काल गणना के
लिए मध्य का
स्थान है। और
इसी स्थिति के
कारण यह
क्षेत्र
प्राकृतिक
सौंदर्य
सम्पदा तथा वैज्ञानिक
महत्त्व
प्रदान करती
है क्योकि यहाँ
से कर्क रेखा
गुजरती है Nirmal (1992)। इसी के
साथ भौगोलिक
स्थिति के
समरूप उज्जैन
नगरी का
सांस्कृतिक
महत्त्व भी कम
नही
है।सांस्कृतिक
विकास विचारो
में नवीनता और
सभ्यता का
विकास भौतिक साधनों
के सुधार से
मूल्यांकित
किये जाते है।
संस्कृति और
सभ्यता एक
दूसरे के एक
पहलू हैं एक
की प्रगति
होने से दूसरे
की प्रगति और
दूसरे की
विकृति होने
से पहले की
प्रगति घटती है।
वही देखा जाये
तो भारतीय
संस्कृति का
उद्भव और
विकास नदियों
के संगम पर
हुआ है अतः यह
कहा जा सकता
है की
क्षिप्रा नदी
के तट पर बसे
प्राचीन
उज्जयिनी
नगरी का उद्भव
और विकास हुआ।
जिसके साक्षी
भास,
गुणाढय, शूद्रक, कल्हण, परिमल, श्रीहर्ष
आदि की
संस्कृत रचनाये
है। जिनमे
उज्जयिनी के
सांस्कृतिक महत्त्व
का वर्णन किया
गया है Nirmal (1992)। वही इस नगरी
को प्राचीन
काल में
पूण्य-भूमि कहा
जाता था और
वर्तमान में
यह नगरी
’मंदिरों की
नगरी’ के नाम
से सुविख्यात
है। उज्जयिनी
नगर में 12
ज्योतिर्लिंगों
में से एक
’महाकालेश्वर’
उज्जैन में
स्थित है तथा
प्रति 12 वर्ष बाद
सिंहस्थ मेले
का भरना जिसमे
13 अखाड़े
सम्मिलित
होते है। तथा
समस्त धर्मो व
सम्प्रदायो
का एकत्र होकर, धार्मिक
प्रवृत्ति
में लीन होना यहाँ
के धार्मिक
महत्त्व को
बताता है। यह
नगरी,
शिव नगरी
के नाम से भी
जानी जाती है।
क्योकि यहाँ
जगह-जगह
शिवलिंगों व
शैवस्थापत्यों
के निर्माण
दृष्टावगत
होते है। और
जहाँ शिव है, वहाँ
उनकी
अर्धांगनी
देवी पार्वती
और उनके विभिन्न
स्वरूपों का
अंकन भी
दृष्टिगोचर
होता है।
जिनके उदाहरण
उज्जैन में
स्थित विभिन्न
संग्रहालयों
में संग्रहीत
प्रतिमाओं के रूप
में देखने को
मिलते है।
उज्जैन नगर
में वैसे तो 5
संग्रहालय है, जिनमें
उज्जैन व
आस-पास के
क्षेत्र में
हुए उत्खनन कार्यो
से
प्राप्त प्रतिमाये
व मूर्तियों
को संग्रहीत
किया गया है, जिनमे
से एक प्रमुख
संग्रहालय
विक्रम कीर्ति
मंदिर है।
इसकी स्थापना 1965
में विक्रम
युग की दूसरी
सहस्त्राब्दी
के अवसर पर एक
सांस्कृतिक
केंद्र के रूप
में स्थापित
किया गया था।
विक्रम
कीर्ति मंदिर
में एक पुरातात्विक
संग्रहालय है
जहाँ विभिन्न
प्रकार के
मिट्टी के
बर्तन और
नर्मदा नदी से
प्राप्त
जीवाश्मो का
संग्रह दिखाई
देता है तथा
यहाँ विष्णु
गैलेरी में
विष्णु व
सूर्य नारायण
सम्बन्धित
प्रतिमायें
तथा शैव गैलेरी
में शिव व शिव
परिवार,
जिनमे शाक्त
धर्म
सम्बंधित
शक्ति
स्वरूपा, जिसमे
प्रमुख रूप से
पार्वती की
उत्कृष्ट
दर्जे की
परमारकालीन व प्रतिहारकालीन
प्रतिमाओं का
संग्रह दृष्टिगोचर
होता है Singh (2017)। वैसे तो
उज्जैन में कई
राजवंशो ने
राज्य करा जिनमे
गुप्त,
राष्ट्रकूट, प्रतिहार, परमार, कलचुरी
निहित है। इन
राज वंशो के
द्वारा धार्मिक
परंपरा को
बनाये रखने
तथा राज्य का
चहुमुखी
विस्तार व
प्रगति के लिए
कई स्वतन्त्र
प्रतिमाओं और
मंदिरों का
निर्माण
कार्य कराया गया।
जिनमे परमार
राजाओ का
कार्य विशेष
उल्लेखनीय
है। परमार
राजवंश की
स्थापना, उद्भव
के कई मत है
जैसे कुछ
विद्वानों का
मानना है की
परमार राजा
पहले
राष्ट्रकूटो
के अधीन थे
उनसे
स्वतंत्र हो
उन्होंने
परमार वंश की
स्थापना करी Meena (2021), Ganguly (2013)। वही
संस्कृत के
अनुसार परमार
शब्द का अर्थ ’शत्रुओ
को मारने
वाला’ है। वही
वैदिक मत के
अनुसार परमार
वंश का उद्भव
ऋषि वशिष्ट के
अग्निकुण्ड
से माना जाता
है Ganguly (2013)। और यह कहा
जाता है, की
जब क्षत्रिय
लोग अपने
पौराणिक
धर्मकर्म से
दूर हो बौद्ध
व जैन धर्म
अपना रहे थे।
तब ऋषि गौत्री
और वशिष्ट
ब्राह्मणों
ने उन्हें पुनः
ब्राह्मण
धर्म दिलवाया
और क्षत्रिय
वंश की स्थापना
करी। जिनमे
राजा
उपेन्द्र
प्रथम थे तथा
अंतिम शासक
महल्क देव थे।
इन राजाओ में राजा
भोज के द्वारा
कराया गया
शिल्पांकन व
स्थापत्य
कार्य उच्च
कोटि का है।
जिसके अनेकानेक
उदाहरण
पूराउत्खननसे
प्राप्त
सामग्री तथा
अभिलेख के रूप
में प्राप्त
होते है। परमारकालीन
शिल्पांकन
में
अलंकारिकता
तथा भावाभिव्यक्ति
का सुन्दर
समावेश दिखाई
देता है।
जिसके प्रमाण
पूर्व और
वर्तमान में
किये गए
उत्खनन व शोध
सर्वेक्षण
कार्य है।
जिसमे देवी
महात्मय के
अनुसार देवी
के नौरुपो में
पार्वती एक रूप
है। जिसमे 10
वर्ष आयु की
बालिका को
गौरी कहा गया
है। गौरी की
उत्पति तथा
अनेक विविध
स्वरूपों का
वर्णन दीपार्णव, देवला
मूर्ति प्रकरण, अपराजितप्रेक्षा, रुपमंडल, अग्निपुराण, मानसर
तथा विष्णुधर्मोत्तर
पुराण में
प्राप्त होता
है। इसमें
गौरी के कई स्वरूपों
का विवरण
प्राप्त होता
है। गौरी के शिल्पांकन
में देवी को
प्रायःस्थानक
मुद्रा में
दिखाया गया
है। तथा
पादपीठ पर
वाहन गोधा
(गोह) को दिखाया
गया है। जहाँ
देवी को
चतुर्भुज रूप
में अलंकरणोंके
साथ
शिल्पांकित
किया गया हैं Meena (2021)। वही
स्कन्द पुराण
के अनुसार
पार्वती का
उद्भव अथवा
जन्म पहाड़ो
में हुआ है।
अतः देवी को
पर्वत पुत्री, गिरिजा, शैल्य
पुत्री,
हिमपुत्री
आदि नामों से
भी जाना जाता
है। यू तो
देवी को अनेक
नामों से
पुकारा जाता
है जिनका
महत्त्व और
वर्णन
शास्त्रों
में उल्लेखित
है। देवी को
ही पार्वती, गौरी
तथा उमा के
नाम से भी
जाना जाता है।
जहाँ देवी को
शिव की अर्धांगनी
तथा आदिशक्ति
स्वरूपा कहा
गया है।
कुमारसंभव
में कालिदास
जी ने पार्वती
व शिव के
स्वरूप संग
सम्पूर्ण
लीलाओं का
वर्णन किया
है। जो
कालान्तर में
शिल्पकला का
महत्वपूर्ण
आधार बनी तथा
शिल्पकला में
पार्वती को
प्रायः
चतुर्भुजी
पंचाग्नितप
स्वरूप में
शिल्पांकित
किया गया है।
जो देवी के
तपस्विनी रूप
को बताता है,जिसमे
देवी
पंचाग्नि के
मध्य तप करती
बताई गई है। 2. विक्रम कीर्ति मंदिर संग्रहालय में संग्रहीत पार्वती प्रतिमाओं का विवरण 2.1. चतुर्भुजी
पार्वती
प्रतिमा विक्रम
कीर्ति मंदिर
संग्रहालय
में संग्रहीत
इस प्रतिमा के
निर्माण में
शिल्पकार ने
अपनी सुन्दर
कल्पना का
समावेश करते
हुए देवी का
सुन्दर जटा
मुकुट,
मुख पर
मंद मुस्कान
लिए
चतुर्भुजी
मुद्रा में
जिसमे दाहिना
हस्त भंग
अवस्था में
प्राप्त हुआ
है वही बाये
हस्त में
कमण्डलु, ऊपर
के दोनों हस्त
में एक में
अध्र्य पट्ट व
कर्णकूपियाँ
लिए अंकित
किया है। इसके
साथ प्रतिमा
के वितान भाग
में देवी के
दोनों तरफ दो
परिचारिकाओं
को बताया गया
है तथा मध्य
भाग में
ज्वालाकुंड
अंकित है।
देवी के
वस्त्राभूषण
की बात की जाये
तो देवी को कम
आभूषणों से
युक्त जिसमे
कर्णकुंडल, त्रिलड़ी
हार,
कटी
गयवलयक,
बाजूबंद, कंगन, नुपुर
व पारदर्शी
वस्त्रो का
अंकन कर देवी
को तपस्विनी
रूप में
शिल्पांकित
किया गया है
तथा देवी के
दोनों तरफ
सिंह की
सुन्दर
आकृतियों का
अंकन किया है
तथा इस
प्रतिमा में
देवी के ऊपरी
भाग में दाये
ओर लघु रूप
में गणेश जी व
बाये ओर लघु
रूप में
शिवलिंग का
अंकन किया गया
है। तथा इस
प्रतिमा को
मंदिर का रूप
देकर शिखर भाग
में
सुन्दरफूल और
पत्तियों तथा
ज्यामितीय
आकृतियों का
प्रयोग कर आकर्षक
अंकन किया गया
है। (चित्र 1) 2.2. शिवलिंग संग
पार्वती
प्रतिमा यह
प्रतिमा शिव
गेलेरी में
अंतिम स्थान
पर द्वार के
समीप स्थित
है। इस
प्रतिमा में
देवी को
चतुर्भुजी
मुद्रा में
स्थानक
स्थिति में बताया
है यह प्रतिमा
बहुत छोटी है
इसमें देवी का
एक हस्त वरद
मुद्रा और
दूसरा हस्त कमण्डलु
लिए व ऊपरी
दोनों हस्त के
आयुध अस्पष्ट
है। प्रतिमा
को आभूषणोंसे
सुसज्जित
किया गया है
परन्तु समय
परिवर्तन के
कारण देवी की
इस सुन्दर
प्रतिमा के
वस्त्राभूषण
की बनावट स्पष्ट
दिखाई नही
देती है। (चित्र 2) चित्र 1
चित्र 2
2.3. शिलोत्किर्ण
पार्वती
प्रतिमा यह
प्रतिमा शिव
गेलेरी (हॉल)
में अंतिम
पंक्ति में
स्थित है। यह
प्रतिमा एक
शिला पर
उत्कीर्ण करी
गई है इस प्रतिमा
का मुख तथा
वस्त्राभूषण
अंकन वर्तमान
स्थिति में
धूमिल रूप से
दृष्टिगोचर
होता है। देवी
को चतुर्थ
हस्त व स्थानक
मुद्रा में शिल्पांकित
करा गया है
जिसमे देवी के
चतुर्थ हस्त
में दायाँ
हस्त वरद मुद्रा, बायां
हस्त कमण्डलु
लिए व ऊपरी
दोनों हस्त में
अर्धपट्ट व
कर्णकूपियाँ लिए हुए
अंकन तथा देवी
के दोनों ओर
ऊपरी भाग में
एक ओर गणेश प्रतिमा
तथा दूसरी ओर
की प्रतिमा
अस्पष्ट दिखाई
दे रही है।
अनुमानित है
की यह लघु
प्रतिमा
कार्तिकेय की
होगी। देवी के
चरणों में
दोनों ओर
परिचारिकाओं
का अंकन करा
गया है। देवी
की इस प्रतिमा
में आभामण्डल
का अंकन तथा
वैजयंतीमाला
धारण करे
अंकित किया
गया है। (चित्र 3) 2.4. आभामंडल
युक्त
पार्वती
प्रतिमा इस
प्रतिमा में
भी देवी को
स्थानक
मुद्रा में शिल्पांकित
किया गया है।
इस प्रतिमा
में देवी के
वस्त्राभूषण
उत्कीर्ण
विधि या
उभारयुक्त
बनाये गए है।
वही देवी का
सुन्दर जटा
मुकुट जिसके
पीछे आभामंडल, सुन्दर
कर्ण कुण्डल, द्वि
तथा तीन लड़ी
हार के साथ
उत्कृष्ट
कोटि का कटी
बंध व
वैजयंतीमाला
धारण करे तथा
पैर नुपुर से
सुसज्जित
अंकित हैं।
देवी के
चतुर्थ हस्त
है जिनमे
अक्षमाला तथा
त्रिशूल
दृष्टावगत होता
है। देवी के
चरणों के समीप
दोनों ओर परिचारिकाओं
को नमस्कार या
देवी की
आराधना करते हए
अंकित किया
गया है। इस
प्रतिमा में 4
परिचारिकाएँ
है जिसमे 2
आगे की तरफ व 2
पीछे की तरफ
है। (चित्र 4) चित्र 3
चित्र 4
2.5. स्थानक
पार्वती
प्रतिमा एक अन्य
प्रतिमा जो
भंगाकार रूप
से प्राप्त हुई
है जिसमे देवी
को स्थानक
मुद्रा में
बताया गया है
परन्तु
प्रतिमा में
शिल्पांकित
सौन्दर्याभूषण, परिचारिका, देवी
के आयुध व
मुखमंडल
स्पष्ट रूप से
दिखाई नही
होते है
परन्तु धूमिल
रूप से
दृष्टावगतदेवी
के रूप व
वस्त्राभूषण
साज-सज्जा से
यह स्पष्ट
होता है की
शिल्पकार ने
इस प्रतिमा का
निर्माण उसी
शिल्पगत विशेषताओं
को लेकर करा
होगा जो अन्य
परमारकालीन
शिल्प में
निहित है। इस
प्रतिमा में
देवी के तीन
हस्त भंग है।
वही एक हस्त
में कार्तिकेय
का शिल्पांकन
है। इस
प्रतिमा में
ऊपर गन्धर्वो का
अंकन किया गया
है। (चित्र 5) 2.6. भंगावस्था
प्राप्त
पार्वती
प्रतिमा यह
प्रतिमा भी
भंगाकार रूप
से प्राप्त
हुई है। जिसमे
देवी की
मुखाकृति, हस्त, वस्त्राभूषण
तथा प्रतिमा
में अंकित
परिचारिकाएं
अस्पष्ट
दृष्टावगत
होती है।
धूमिल रूप से
देवी का
आभामंडल, त्रिलड़ी
हार,
स्तनसूत्र, कटी
बंध,वैजयंतीमाला
व पैरो के
नुपुर दिखाई
देते है परन्तु
उनकी सुन्दर
बनावट
अस्पष्ट है।
साथ ही इस
प्रतिमा में
भी देवी के
दोनों ओर गणेश
व एक अन्य
आकृति अंकित
है जो अस्पष्ट
है। (चित्र 6) चित्र 5
चित्र 6
2.7. अर्धपर्यकासन
पार्वती
प्रतिमा इस
प्रतिमा में देवी
पार्वती को
ललितासन में
बैठे दिखाया
गया है। इस
प्रतिमा में
देवी की
मुखाकृति
स्पष्ट नही
दिखाई दे रही
है। देवी के
चार हस्त है, जिसमे
से एक भंग
अवस्था में है
बाकि बांया
हस्त अस्पष्ट
है इसे ध्यान
मुद्रा मे कह
सकते है तथा
अन्य ऊपर के
हस्तों में एक
में त्रिशूल व
दुसरे में
डमरू लिए अंकन
किया गया है।
देवी के
वस्त्राभूषण
धूमिल है
जिसके कारण वह
पूर्ण
सुन्दरता के
साथ
दृष्टिगोचर
नही हो रहे है।
(चित्र 7) 2.8. पार्वती
(गौरी)
प्रतिमा इस
प्रतिमा में
शिल्पकार ने
देवी को
स्थानक मुद्रा
में गोदा (गोह)
नामक वाहन पर
खड़े अतिसुन्दर
रूप में
शिल्पांकित
किया है। देवी
का सुन्दर
मणियुक्त
केशविन्यास
तथा गोल
मुखाकृति पर
लावण्य के साथ
मंद मुस्कान
लिए अंकन किया
गया है। देवी
के बड़े-बड़े
चक्षु,
उभरी भौहे, लम्बि
नासिका,
कमल की
पंखुड़ी के
समान ओष्ठ, माशलता
लिए हुए समभंग
मुद्रा में, पूर्ण
विकसित उरोज, सुन्दर
कटी भाग व चार
हस्त भंग
अवस्था में
प्राप्त हुए
है। देवी की
इस प्रतिमा को
सुन्दर अलंकरणों
से सुसज्जित
किया गया है, जिसमे
देवी को गोल
कर्ण कुण्डल, एक
लड़ी हार, द्वि
लड़ी हार, सुन्दर
स्तनसूत्र
जिसे हवा के
वेग से मुड़ा
हुआ बनाया गया
है। हस्त में
बाजुबंध, सुन्दर
कटी मेखल, पैरो
में कड़ी तथा
नुपुर धारण
करे अंकन किया
गया है। देवी
ने
वैजयंतीमाला
धारण कर रखी
है जिस पर
सुन्दर उभार
युक्त
फुल-पत्तियों
का अंकन किया
गया है।
प्रतिमा के
दोनों तरफ
दो-दो
परिचारिकाएँ
अंकित है बैठी
हुई परिचारिकाओं
ने माला ली
हुई है। (चित्र 8) चित्र 7
चित्र 8
3. उपसंहार उपरोक्त शोध पत्र में विक्रम कीर्ति मंदिर संग्रहालय में संग्रहीत मालवा के पूरा उत्खनन से प्राप्त पार्वती प्रतिमाओं के रूपांकन का अध्ययन करने पर यह प्राप्त होता है की मालवा के परमारकालीन शिल्पकारों ने देवी प्रतिमा के शिल्पांकन में अधिकतम रूप गरिमा को समेटने का प्रयास करा है, सौंदर्य बोध की सहजता को बनाये रखा है। साथ ही प्रतिमाओं के शिल्पांकन में आभूषणों के साथ, भाव को भी अभिव्यक्त करउत्कृष्ट कृतियों का निर्माण कार्य किया गया है। तथा परमारकालीन समयांतर में हुए शिल्प कार्यो में जहाँ देवी प्रतिमाओं में समानता है वही अंतर भी है। कुछ प्रतिमायें जो बलुआ ग्रे पत्थर से निर्मित की गई है वही कुछ काले पत्थर पर बनी है कुछ में सुन्दर उभारयुक्त आभूषणों का निर्माण हुआ है, तो कही कार्विंग कर आभूषणों को बनाया गया है। साथ ही देवी के रूप में जहाँ समानतायें दिखती है वही अंतर भी है उपरोक्त प्र प्रतिमाओं में से चित्र 1 प्रतिमा में देवी के समीप में सिंह वाहन की आकृति अंकित है वही एक प्रतिमा में देवी को गोह वाहन पर स्थानक मुद्रा में अंकन किया गया है वही अन्य प्रतिमाओं में देवी को स्वतंत्र रूप में शिल्पांकित किया गया है।
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESGanguly, D. C. (2013). History of Parmar Dynasty. Lucknow:Prakashan Kendra. Garg. M. R. (2012). Shri Mahakaleshwar : Ujjain. Gyan Publishing House. Meena, R. K. (2021). Paramar Dynasty And Malwa Landscapes Role. Prabhat Prakashan. Nirmal, R. (1992). Anadi Ujjayini 2 (Puratan Sanskratik Kendra). Bombay Avanti Prakashan. Nirmal, R. (1992). Anadi Ujjayini 1 (Kaalgarna Ka Madhyabindu). Bombay Avanti Prakashan. Singh, V. (2017). Ujjain : The Eternal City. DB Corp Ltd.
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