ShodhKosh: Journal of Visual and Performing ArtsISSN (Online): 2582-7472
CONTRIBUTION OF FOLK ARTS IN THE PROMOTION OF INDIAN CULTURE भारतीय संस्कृति के संवर्धन में लोककलाओं का अवदान Dr. Mantosh Yadav 1 1 Assistant Professor, Department of Fine
Arts, Devbhoomi Uttarakhand University, Dehradun, Uttarakhand, India 2 Ph.D., Banda, India
संस्कृति
किसी भी समाज
का
महत्वपूर्ण
अंग होती है।
यह किसी
राष्ट्र के
निर्माण, विकास और
प्रगति में
सदैव सहायक
रही है। संस्कृति
समय के
साथ-साथ
निरन्तर
विकसित होती
है। संस्कृति
और
रचनात्मकता Cultures and creativity दोनों ही
आर्थिक,
सामाजिक और
गतिविधि के
अन्य सभी
पहलुओं को प्रभावित
करती हैं।
भारत दुनिया
के सर्वश्रेष्ठ
सांस्कृतिक
देशों में से
एक है,
क्योंकि यह
सहस्राब्दियों
से कई
संस्कृतियों
का
केन्द्रविन्दु
रहा है Dinkar (1962)।
जिसमें बिहार
की मधुबनी, महाराष्ट्र
की वर्ली, मध्यप्रदेश
की गोंदना, भील
व गोंड़,
उड़ीसा के
पटचित्र, कालीघाट
के पटचित्र, आन्ध्रप्रदेश
की कलमकारी, तंजौर
कला, बुन्देलखण्ड
की महबुलिया, भड़चित्र
आदि है।
भारतीय
संस्कृति के
सामाजिक
विकास में लोक
कलाओं की
समरसताएं
अद्वितीय पहलुओं
को प्रकट करती
है, लोक
कला और
सांस्कृतिक
सद्भाव में
स्थानीय जीवन
और परम्पराओं
को दर्शाने के
साथ ही शिक्षा
के क्षेत्र
में लोक कलाएं
कई प्रकार से
लाभप्रद
होगी। इसके
साथ ही लोक
कलाओं के
संरक्षण व
समृद्धि की
उपयोगिता
बखुबी
प्रदर्शित की
गयी है। यह
विभिन्न
राज्यों और
सांस्कृतिक
समुदायों के
बीच विशेषता
और समृद्धि
विरासत को
प्रकट करती
रही है।
भारतीय लोक
कला
विविधतापूर्ण
धरोहर है जो
भारतीय
संस्कृति के
गहरे रूप को
प्रकट करती
है। इसका
परिचय भारतीय
जनता की
सांस्कृतिक
धरोहर,
परंपराएं, और जीवनशैली
से जुड़ा हुआ
है। भारतीय
लोक कला में विभिन्न
रंग-रूप, रीति-रिवाज, और
प्रदेशों की
भिन्नता में
एकता देखने को
मिलती है।
भारतीय लोक
कला का
ऐतिहासिक
दृष्टिकोण से
दर्शन करें तो
यह
प्रागैतिहासिक
गुहाचित्रों, आद्यैतिहासिक
सिंधुघाटी
सभ्यता,
मौर्यकालीन,शुंगसातवाहन, गुप्तकालीन
आदि
कालक्रमों के
साथ अग्रसर बढ़ती
रही। लोक
कलाओं का
विकास
मध्यकाल से
बढ़ते हुए
वर्तमान समय
में समुचे देश
ही नही अपितु
विदेशों में
भी प्रसिद्धि
प्राप्त कर
रही है। भारतीय
लोक कला विश्व
की सबसे
प्राचीन और
समृद्ध लोक
संस्कृतियों
में से एक है।
यह लोक
संस्कृति
भारतीय समाज
के गहरे
तात्त्विक, सामाजिक, और
आर्थिक
विचारों का
प्रतिनिधित्त्व
करती है और
भारत की
अद्वितीयता
को प्रकट करती
है। 2. भारतीय संस्कृति में लोक कलाओं का उद्देश्य लोक कला
का अर्थ है वह
कला जो लोक
यानि जनता के बीच
उत्पन्न होती
है और उनकी
जीवन-शैली, धार्मिक
अनुभूति, सामाजिक
चेतना,
राष्ट्रीय
भावना और
सांस्कृतिक
विरासत को प्रतिबिंबित
करती है Jain (1997)।
लोक कला के
अंतर्गत
विभिन्न
प्रकार की गीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्पकला, नाटक, कथा, कविता, उपन्यास, लेख, वाक्य, वाणी, विलाप, विरह, विहंगम, श्रृंगार, हास्य, रौद्र, भयानक, वीर, करुण, आदि
आते हैं। लोक
कलाएं भारत की
विविधता और समृद्धि
का प्रतीक भी
हैं। ये कलाएं
भारत के विभिन्न
भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक
और ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्यों
को दर्शाती
रही हैं। लोक
कलाएं भारत के
लोक जीवन का
अभिन्न अंग
हैं। लोक
कलाओं का
उद्देश्य
लोगों को
मनोरंजन, शिक्षा, सांस्कृतिक
चेतना,
सामाजिक
एकता और
राष्ट्रीय
भावना का
संचार करना
माना जाता है।
लोक कलाएं
लोगों की
भावनाओं, विचारों, मूल्यों, रीति-रिवाजों, धर्म-दर्शनों, इतिहास-परंपराओं
और आदर्शों को
प्रकट करती हैं।
ये कलाएं
लोगों को अपनी
विरासत,
अपनी पहचान
और अपनी
स्थिति का बोध
कराती हैं। ये
भारत के विकास
और प्रगति में
भी सदैव योगदान
देती रही हैं।
ये कलाएं
लोगों को
नवाचार,
सृजनशीलता, सहयोग, समानता, न्याय, शांति
और समरसता के
मूल्यों को
समझाती और बढ़ावा
देती हैं। लोक
कलाएं भारत की
एकता में विविधता
का सुंदर
सामंजस्य
बनाती हैं। अनुसंधानिक
ऐतिहासिक
विधि (Historical method) इस
शोध में
तकनीकों और
दिशानिर्देशों
का समुच्चय है
जिनका उपयोग
इतिहासकार
अतीत के इतिहास
के अनुसन्धान
तथा लेखन के
लिए करते हैं।
इस शोध के
हमने
प्राथमिक
स्रोतों और
पुरातत्व सहित
अन्य
साक्ष्यों का
उपयोग किया
गया है। कला
के इतिहासिक
दर्शन में, भारतीय
ज्ञानमीमांसा
के उपक्षेत्र
में एक उचित
ऐतिहासिक
विधि की
सम्भावना एवं
प्राकृतिक
प्रश्न उठाते
हुए उसे
सुलझाया गया
है। साहित्यिक
साक्ष्यों
एवं स्रोतों
के आधार पर इस अनुसंधानिक
कार्य को
सजोने का
प्रयास किया गया
है। 3. भारतीय संस्कृति में प्रचलित लोक कलाएं भारतीय
लोक कलाओं का
इतिहास बहुत
ही विशाल और प्राचीन
है। इसका
इतिहास
विभिन्न
क्षेत्रों और
समय की प्रकृति
के साथ बदलता
रहा है।
प्राचीन भारत
में लोक कला
विविध जीवन
शैली,
धार्मिक
आदर्श और
समृद्धि की
अभिव्यक्ति
मानी जाती थी।
इसमें भारतीय
शिल्प,
मूर्तिकला, संगीत, नृत्य, और
वास्तुकला
शामिल थी।
मध्यकाल
राजपूत,
मुगल,
पहाड.ी
साम्राज्य
कालीन लोक कला
में विभिन्न प्रकार
के चित्र, शिल्प, ग्रंथन, और
मूर्तिकला की
उन्नति हुई।
यहाँ तक कि
भव्य मन्दिरों, मठों, राजभवनों, दुर्गों, मकबरे
और पैलेसों
में बखूबी लोक
कलाओं का प्रभाव
दिखाई देता
है Gairola (1983)। आधुनिक
काल में
भारतीय लोक
कला विविधता
और समृद्धि के
साथ फिर से
उभर रही है।
यह बड़े पैमाने
पर लोक कला
मेलों,
गांवों में
गाये जाने
वाले गीतों, और
लोक नृत्यों
के माध्यम से
दर्शकों को
आकर्षित कर
रही है।
वर्तमान में
भारतीय लोक
कलाएं हमारी
सांस्कृतिक
धरोहर का
महत्वपूर्ण
हिस्सा है अतः
इसे बचाकर
रखना और
प्रोत्साहित
करना हमारे
लिए बहुत ही
महत्वपूर्ण व
चुनौतीपूर्ण
है। भारतीय
नृत्य: भारत
में अनेक
प्रकार के
नृत्य हैं, जैसे
कि भरतनाट्यम, कथक, कुछिपुडी, मोहिनीअट्टम, कथकली, मणिपुरी, ओडिसी, सत्तरिया, भोजपुरी, गरबा, घूमर, भांगड़ा, लावणी, बिहू
आदि। ये नृत्य
भारत के
विभिन्न
राज्यों, जनजातियों, समुदायों
और धर्मों व
क्षेत्रीय
अभिव्यक्ति
हैं। ये नृत्य
भाव, राग, ताल, अभिनय, शैली, पोशाक
और संगीत के
माध्यम से
लोगों को
सौन्दर्यबोध, आनन्द
के साथ-साथ
सन्देश,
उपदेश व
शिक्षा देती
हैं। भारतीय
संगीत: भारत
में संगीत के
दो प्रमुख
प्रकार माने
गये हैं, एक
शास्त्रीय
संगीत और
दूसरी लोक
संगीत। ’शास्त्रीय
संगीत’ में
हिन्दुस्तानी
और कर्नाटक शैली
हैं। इसमें
राग, ताल, लय, आलाप, तान, बोल, तिहाई, तोड़ा, तराना, रुपद, ख्याल, ठुमरी, दादरा, गजल, भजन, कीर्तन, शब्द, रागमाला, तिल्लाना, वर्णम, कृति, पदम, जावली, भक्ति
गीत, श्रृंगार
गीत आदि शामिल
हैं। ’लोक
संगीत’ में भारत
के विभिन्न
प्रांतों, भाषाओं, त्योहारों, ऋतुओं, जीवन
के अवसरों और
रसों के
अनुसार अनेक
प्रकार के गीत
हैं, जैसे
कि लोकगीत, लोकगाथा, लोकनाटक, लोकधुन, लोकवाद्य, लोकनृत्य, लोकशैली, लोकभाषा, लोकछंद, लोकअलंकार, लोकविधान, लोकविश्वास, लोकज्ञान, लोकसाहित्य, लोकसम्प्रदाय, लोकसंस्कार, लोकसंस्कृति
आदि है Gupta (2010)।
’भारतीय
लोक
चित्रकलाएं‘‘:
एक
महत्वपूर्ण
शैली है जो
साहित्य, संस्कृति
और कला के
माध्यम से
जनता के मध्य
संवेदना और
भावनाएं
व्यक्त करने
का एक उत्कृष्ट
तरीका है। लोक
चित्रकला ने
समग्र समाज को
एक साथ जोड़कर
सांस्कृतिक
विकास व
संवर्धन में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई
है। भारत में
चित्रकला की
अनगिनत लोक
कलाएं हैं। जो
क्षेत्र विशेष
में प्रचलित
हैं Gupta (2010) ।
भारत ही एक
ऐसा देश है
जहां सबसे
अधिक लोक कलाओं का जन्म
हुआ। यदि हम
गौर करें तो
हमें बहुत सी
ऐसी कलाएँ
जिनका स्वरूप
इतना विराट है
कि यह किसी
तरह के परिचय
की मोहताज
नहीं हैं।
यहां कुछ
प्रमुख लोक
कलाओं के बारे
में सविस्तार
से वर्णन हैं। मधुबनी
पेंटिंग
(मिथिला
पेंटिंग):
यह बिहार के
मधुबनी जिले
में प्रमुख
रूप से पायी
जाती है, मधुबनी
कला को आमतौर
से मिथिला कला
के रूप में भी
जाना जाता है
। इस कला का
जन्म राजा जनक
के जीवन काल
के दौरान हुआ Shastri (2021)।
इस कला में
अलग-अलग
प्रकार के
आकारों के द्वारा
चित्रकला को
रेखाप्रधान
रुप में पूर्ण
किया जाता है
जिसमें विविध
रंगों का
उपयोग कर धार्मिक
ग्रंथों, पुराणों, देवी-देवताओं, जानवरों, पक्षियों, पेड.-पौधों, पुष्प
लता आदि
विषयों को
प्राकृतिक
रंगों से चित्रित
किया जाता है।
मधुबनी कला आज
भारत के गौरव
को अखंडता के
शिखर पर ले
जाने में
कामयाब होती
प्रतीत हो रही
है। चित्र 1
वर्ली
पेंटिंगः
वर्ली कला
दक्षिण भारत
(महाराष्ट्र
के वरली गांव)
के
आदिवासियों
की देन है इस
कला को भारत में
16वीं शताब्दी
के मध्य में
पहली बार देखा
गया, इस
कला में
मुख्यतः
त्रिकोण और
गोल आकार के
चित्र बनाए
जाते हैं, जिसमें
आदिवासियों
के आनन्दमयी
जिंदगी के कई
रंग शामिल
होते हैं।
वर्ली कला
भारत की सभ्यता
का एक अनूठा
हिस्सा है जो
कि भारत को और
भी अलग रूप
में
प्रदर्शित
करती है। चित्र 2
कालीघाट
के
पट्टचित्रः
(बंगाल)
कलकत्ता के
मशहूर काली
मंदिर के पास
कागज या कपड़े
पर बने चित्र
जो कि स्थानीय
मांग पर
आधारित थे, उन्हें
कालीघाट के
चित्र कहा
गया। ये
चित्रकारी
वर्तमान में
बंगाल ही नही
अपितु पूरे
भारत में अपनी
लोक कला शैली
हेतु प्रचलित
है। चित्र 3
ओडिशा के
पट्टचित्रः
इस शैली के
चित्रों में
विजयनगर का
आकृति विधान, मुगलों
का रेखांकन, स्थानीय
लोक कला और
कालीघाट के
प्रभाव दिखते हैं।
फिर भी समरसता
के साथ
अलग कलात्मकता
की छाप से
प्रसिद्धि पा
चुकी है। कपड़े
और टाट पर बने
इन चित्रों का
विषय धार्मिक
है। कलमकारी
कला: दक्षिण
भारत के
आन्ध्रप्रदेश
की प्रसिद्ध
कलमकारी
शब्द का नाम
दो शब्दों के
मेल से बना है
जिसमें पहला
शब्द ‘कलम’ और
दूसरा शब्द
‘कारी’ है। इस
कला के अनुसार
इसमें कलम का
अर्थ है
चित्रकारों
के द्वारा
इस्तेमाल की
जाने वाली कलम
जो कि
बम्बू/लकड़ी से
बनाई जाती है
और कारी का
मतलब है वह
कार्य जिसको
हम कला के रूप में
जानते हैं।
कलमकारी
चित्रकला के
माध्यम से
कहानी कहने का
एक प्राचीन
रूप है और इसे
संगीतकारों
और चित्रकारों
द्वारा
लोकप्रिय
बनाया गया।
जिन्हें
चित्रकट्टी
के नाम से भी
जाना जाता था।
चित्रकट्टियाँ
विभिन्न
गाँवों की
यात्रा करती
थीं और विभिन्न
पौधों से
निकाले गए
रंगों के साथ बड़े
कैनवास के
माध्यम पर
भारतीय
पौराणिक कथाओं
की महान
कहानियाँ
बनाई जाती थीं
Rajpurohit (2015) कैनवास
इस मामले में
एक विशाल कपड़ा
था जिसे दूध
में डुबोया
जाता था और
फिर धूप में
रंगा जाता था।
चित्रकट्टियों
ने रंगीन
डिजाइन बनाने के
लिए बांस की
छड़ें या खजूर
की छड़ियों का
इस्तेमाल
किया करते थे। चित्र 4
तंजौर
कलाः तंजौर
कला का जन्म
16वीं शताब्दी
के मध्य में मूलतः
दक्षिण भारत
में हुआ।
तंजौर कला का
इतिहास भी
बेहद लंबा है।
तंजौर कला
मुख्यतः एक
चित्रकारी का
रूप है जिसमें
स्वर्ण,
कीमती
पत्थरों और
कांच इन तीनों
के सहारे अति
सुंदर,
कलात्मकता
के साथ चित्रण
किया जाता है।
इसमें
ज्यादातर
भगवान के
स्वरूप का
चित्रण किया गया
है Shastri (2021)।
आप सोने की
पन्नी के
उपयोग से
तंजावुर
पेंटिंग की
पहचान कर सकते
हैं, जो
चमकती है और
पेंटिंग को एक
असली स्वरूप
देती है। लकड़ी
के तख्तों पर
बने ये पैनल
पेंटिंग देवी-देवताओं
और संतों की
भक्ति को
दर्शाते हैं। गोंड कला:
गोंड कला मध्य
भारत की एक
लोक कला है
जिसका जन्म
17वीं सदी के
मध्य में हुआ
था। गोंड कला
मुख्य रूप से
गोंड
आदिवासियों
से जुड़ी हुयी
है जो कि उनके
हुनर को बखूबी
पेश करती है।
गोंड कला में
रेखाओं,
बिंदुओं के
सहारे
चित्रकारी की
जाती है, मध्य
प्रदेश में
गोंडी जनजाति
ने प्रकृति के
साथ अपनेपन की
भावना से
प्रेरित होकर
इन साहसिक, जीवंत
रंगों वाले
चित्रों का
निर्माण किया, जिसमें
मुख्य रूप से
वनस्पतियों
और जीवों का चित्रण
किया गया था।
रंग लकड़ी का
कोयला,
गाय के गोबर, पत्तियों
और रंगीन
मिट्टी से आते
हैं। यदि आप बारीकी
से देखें तो
यह बिंदुओं और
रेखाओं से बना
है। आज,
इन
शैलियों की
नकल की जाती
है, लेकिन
ऐक्रेलिक
पेंट्स के
साथ। इसे गोंड
कला के रूप में
एक विकास कहा
जा सकता है, जिसकी
अगुवाई सबसे
लोकप्रिय
गोंड कलाकार
जंगढ़ सिंह
श्याम ने की, जिन्होंने
1960 के दशक में
दुनिया के लिए
कला को पुनर्जीवित
किया। चित्र 5
उत्तराखंड
की ऐपन कला: उत्तराखंड
की ऐपन कला एक
पारंपरिक और
धार्मिक लोक
कला है जो
मुख्यतः
कुमाऊं व
गढ़वाल क्षेत्र
में प्रचलित
है। इस कला का
उपयोग विशेष
अवसरों, त्योहारों, और
धार्मिक
समारोहों में
किया जाता है।
ऐपन कला मुख्य
रूप से लाल
गेरू और सफेद
चावल के पेस्ट
(बिस्वार) का
उपयोग करके
घरों के आंगन, दीवारों, और
दरवाजों पर
बनाई जाती है, इसमें
ज्यामितीय
पैटर्न,
देवी-देवताओं
की आकृतियाँ, और
लोक कथाओं के
दृश्य शामिल
होते हैं। ऐपन
कला का
धार्मिक और
सांस्कृतिक
महत्व है और
इसे शुभ और
मंगलकारी
माना जाता है।
इसके माध्यम
से न केवल
सौंदर्य और
रचनात्मकता
का प्रदर्शन होता
है, बल्कि
यह लोगों की
धार्मिक और
सांस्कृतिक
पहचान को भी
दर्शाता है।
वर्तमान में
इस कला को संजोने
और
प्रोत्साहित
करने के लिए
अनेक प्रयास
हो रहे हैं, जिससे
यह कला आने
वाली पीढ़ियों
तक पहुँच सके
और अपनी पहचान
बनाए रख सके। फड़
पेंटिंग:
फड़ पेंटिंग
राजस्थान की
प्राचीन कला
रही है जो
पधारी जाने
वाले किस्सों
और इतिहास को
रंगीनता से भर
देती है।
इसमें
धार्मिक और
सामाजिक विषयों
को बखूबी
व्यक्त किया
जाता है, जैसे
कि महाभारत
कथाओं,
प्रभु कृष्ण
के जीवन के
घटनाक्रम
आदि। फड़ पेंटिंग
का विशेष रूप
स्वतंत्रता
संग्राम और लोक
कथाओं को
दर्शाने में
है। चित्र 6
कांवड़
पेंटिंग:
कांवड़
पेंटिंग
भगवान शिव के
भक्तों के
पर्वतीय
यात्राओं को
दर्शाती है।
यह परंपरागत
पेंटिंग
उत्तर भारतीय
राज्यों में
विशेषतः राजस्थान
और हरियाणा
में लोकप्रिय
है। कांवड़ पेंटिंग
में भगवान शिव
के भक्तों की
श्रद्धा, उनकी
यात्रा का
महत्त्व, और
धार्मिक
महात्म्य को
व्यक्त किया
जाता है।
इसमें
विभिन्न
रंगों और
गुलाल का
प्रयोग होता
है जो पैगंबर
की यात्रा के
उत्सव को और
रंगीन बनाता
है। बुंदेलखण्ड
की महबुलियाः
पित्रपक्ष
में कुवांरी
कन्याओं
द्वारा किया
जाने वाला
अनुष्ठान है।
जिसमें 15
दिनों तक सायंकाल
में घर के
प्रमुख द्वार
पर कांटेदार टहनी, पुष्प, पत्तियां, गोवर, मिट्टी
आदि से
चित्रांकन
करके अपने
पूर्वजों की
पूजन अर्चना
की जाती है, व
अन्तिम दिन
नदी या तालाब
में विसर्जित
करते है।
महबूलिया
सामाजिक
सौहार्द का
प्रतीक मानी
जाती है Mishra (2018)। पटना या
कंपनी शैलीः मुगल
कला और
यूरोपीय कला
के सम्मिश्रण
से जो शैली
सामने आई उसे
कंपनी शैली
कहते हैं। ये
चित्र पटना
में बनाए गए
थे, इसलिये
इन्हें पटना
शैली भी कहा
बोला जाता है।
इन चित्रों
में छाया के माध्यम
से
वास्तविकता
लाने का
प्रयास किया गया
तथा प्रकृति
का
यथार्थवादी
चित्रण अलंकारिता
के साथ
चित्रित किया
गया। व्यापारिक
वाणिज्यिक
चित्रकलाः
भारत के
विभिन्न
क्षेत्रों
में
व्यापारिक वाणिज्यिक
चित्रकला की
परंपरा है, जिसमें
हस्तकला, काष्ठकला
और बुनाई का
काम शामिल
होता है। इन्ही
कलाओं को
बढावा देने
हेतु उत्तर
प्रदेश सरकार
ने प्रत्येक
जनपद में
कार्यक्रम (OD OP one
district one program) संचालित
की हैं। हस्तशिल्प:
भारतीय
लोक कला में
शिल्पकला का
एक महत्वपूर्ण
स्थान है।
यहां लोक
कलाकार
विभिन्न
साधनों का
उपयोग करके
अपने काम को
मनमोहक
सजावटी बनाते
हैं। भारतीय
हस्तशिल्प
विभिन्न
रूपों में
उपलब्ध है, जैसे
कि मणिमाणि, चित्रकला, काठकला, रंगों
का उपयोग, और
अलग-अलग
धातुओं का
उपयोग। यह लोक
संग्रहणों, आधारशिल्प, मूर्तिकला, और
आधुनिक
वस्त्र बनाने
में प्रयोग
होते आ रही
है। लोक कथा
और कहानी:
भारतीय लोक
कथाएं और
कहानियां
जीवन के विभिन्न
पहलुओं को
दर्शाती हैं
और संस्कृति
के मूल्यों को
साझा करती
हैं। इनमें
अक्सर
प्राचीनता, भावनाओं, और
समाज के
मूल्यों का
चरित्र
चित्रण होता
है। लोक कथाएं
और कहानियां
भावनात्मक और
साहित्यिक
धरोहर हैं। ये
कथाएं
विभिन्न
प्रांतों में
विभिन्न
रूपों में
प्रस्तुत
होती हैं और भारतीय
साहित्य और
संस्कृति की
विविधता को प्रकट
करती हैं। मध्य
प्रदेश/छत्तीसगढ़
की गोंदना
चित्रकला:
गोंदना
चित्रकला
मध्य प्रदेश
के गोंदवाना जिले
से उत्पन्न
हुई है। यह
कला धार्मिक
और सांस्कृतिक
आधारों पर
आधारित है और
विभिन्न रंगों
का प्रयोग
किया जाता है।
गोंदना कला, मध्य
प्रदेश की एक
प्रमुख लोक
कला परंपरा है, यह
कला गोंद
जनजाति की
विशेषता है, जो
उनकी
संस्कृति, ऐतिहासिक
कथाओं,
और परंपराओं
को दर्शाती
है। गोंदना
कला के चित्र
त्वचा में
छोटे-छोटे
छिद्रों से
आमतौर पर घास-फूस, पक्षियों, जानवरों, और
जंगली जीवों
के चित्र बनते
हैं। इसके
अलावा,
धार्मिक और
आध्यात्मिक
विषयों पर प्रतीकात्मक
जैसे
स्वाष्तिक, ओम, गदा, शंख, त्रिशुल
आदि के चित्र
उकेरे जाते है
Gupta (2010)। पंचमहल
की चित्रकलाः
पंचमहाल जिले
के लोक
चित्रकला
गुजरात की एक
अनूठी परंपरा
है जो अपने
रंगीन और
विविध चित्रों
के लिए
प्रसिद्ध है। ये केवल
कुछ उदाहरण
हैं, भारत
में और भी कई
रूपों की
अमूल्य लोक
कलाएं हैं जो
भारतीय
संस्कृति और
ग्रामीण जीवन
का महत्वपूर्ण
हिस्सा हैं।
लोक कलाएँ
सामाजिक, सांस्कृतिक, और
राष्ट्रीय
महत्व रखती
हैं। ये कलाएँ
हमारी
जीवनशैली, गतिविधियों, और
धार्मिक
आदर्शों को
प्रकट करती
हैं और सामाजिक
एकता को बढ़ावा
देती हैं। लोक
कलाएँ जीवन के
विभिन्न
पहलुओं को
प्रस्तुत
करती हैं और भौगोलिक, ऐतिहासिक, और
सांस्कृतिक
धरोहर को
महत्वपूर्ण
बनाती हैं।
इनका महत्व
स्थानीय भाषा, परंपरा, और
समृद्धि के
लिए भी होता
है। लोक
चित्रकलाओं
का आधार‘‘ एक
विषय है
जिसमें हम लोक
साहित्य और
चित्रकला के
माध्यम से
जुड़ी रूपरेखा, भूमिका, और
महत्व की
चर्चा कर सकते
हैं। लोक
चित्रकलाएं
विभिन्न
भौगोलिक
क्षेत्रों, सांस्कृतिक
समृद्धियों, और
समुदायों के
आधार पर
आदिवासी, ग्रामीण
और अन्य
स्थानीय
समुदायों की
जीवनशैली, सांस्कृतिक
विरासत और
समस्याएं
दिखाती हैं। लोक
चित्रकलाएं
सामाजिक, सांस्कृतिक
और ऐतिहासिक
संदेशों को
साझा करने का
एक माध्यम भी
हैं। इनमें
स्थानीय
रूपरेखा, रंग-बिरंगे
चित्र,
और लोक कला के
माध्यम से
समुदाय की
भाषा,
सांस्कृतिक
अद्यतन और
भूमिका
सुनिश्चित करने
का प्रयास
किया जाता है। इसमें
स्थानीय भाषा, संगीत, नृत्य, और
शैली के साथ
भूमिका-बाधित
चित्रों का
विश्लेषण
शामिल होता
है। लोक
चित्रकलाएं
अपने समय की जीवनशैली, विशेषता
और
सांस्कृतिक
परंपराओं को
उजागर करती
हैं और समुदाय
के लोगों के
बीच
समर्पितता और
एकता की भावना
को बढ़ावा देने
में मदद करती हैं।
इसमें
अनुसंधान, शोध, और
सांस्कृतिक
समृद्धि के
लिए लोक
चित्रकलाओं
का आधार
स्थापित करने
के लिए नए
दृष्टिकोणों
की आवश्यकता
हो सकती है। 4. समाजिक विकास में लोक कलाओं की समरसता लोक कलाएँ
समृद्धि के
साथ-साथ कई
तरीकों से सामाजिक
विकास में
योगदान करती
हैंः सांस्कृतिक
धरोहर: ये
कलाएँ
सांस्कृतिक
धरोहर को
बचाती और प्रसारण
करती हैं, जिससे
भाषा,
संगीत,
नृत्य,
और कला की महत्वपूर्ण
प्राचीन
टुकड़े
प्रतिबंधित
नहीं हो सकते
है।
लोक कलाएँ
लोगों को एक
साथ जोड़ती हैं
और समृद्ध
सामाजिक जीवन
को प्रोत्साहित
करने में
मददगार
हैं। संवाद का
माध्यम: इन
कलाओं के
माध्यम से
व्यक्ति अपने
विचारों, भावनाओं, और
कथाओं को एक
बेहतर तरीके
से व्यक्त
करते हैं। रोजगारः
कला एक साधना
व मनोरंजन के
साथ-साथ लोगों
को रोजगार के
मार्ग
प्रसस्त
कराती हैं, जैसे
कि कला शिक्षक, संगीतकार, और
कला कारीगर
आदि। साहित्यिक
मूल्य: लोक
कलाएँ
साहित्यिक और
विशेषज्ञता
की मूल जड़ में
बसी होती हैं
और साहित्य, फिल्म, और
अन्य कला
रूपों को एक
गहरे
सांस्कृतिक
अर्थ और संवाद
का स्रोत
प्रदान करती
हैं। इसलिए, लोक
कलाएँ
समृद्धि, सामाजिक
एकता,
संस्कृति का
आदान-प्रदान, और
साहित्यिक
विकास में
महत्वपूर्ण
भूमिका निभाती
हैं। सामाजिक
सचेतना:
लोक चित्रकला
समाज की
समस्याओं, जीवन
के अनुभवों, और
सांस्कृतिक
परंपराओं को
दर्शाती है।
यह लोगों को
उनके समाज में
हो रहे
परिवर्तनों
की सही दिशा
में देखने का
सामर्थ्य
प्रदान करती है
और सामाजिक
सचेतना बढ़ाती
है। लोक
चित्रकला के
माध्यम से
समाज की
विभिन्न
वर्गों और
समृद्धि
स्तरों की
भूमिकाओं को
निभाती है।
इससे लोग अपनी
भूमिका को
समझते हैं और
समाज में सहयोग
करने के लिए
प्रेरित होते
हैं Aravind (1921)। जन-भाषा:
लोक चित्रकला
आम जनता की
भाषा में होती
है और उसे
सीधे तौर से
स्पष्ट करने
की क्षमता
रखती है। इसके
माध्यम से
विभिन्न
सामाजिक
विचार,
भावनाएं, और
अनुभव साझा
होते हैं
जिससे भाषा का
विकास होता
है। सांस्कृतिक
समृद्धि:
लोक चित्रकला
ने
सांस्कृतिक
समृद्धि में
योगदान किया
है जिससे
समृद्धि के
साथ-साथ सांस्कृतिक
विविधता को
बढ़ावा मिला
है। इसने अनेक
भूमिकाओं, परंपराओं, और
जीवन शैलियों
को समर्थन
किया है जो
सांस्कृतिक
विकास के लिए
महत्वपूर्ण
हैं। सामाजिक
समर्थन:
लोक चित्रकला
कला के माध्यम
से लोग अपनी
समस्याओं और
आत्मा समर्थन
की भावना
प्राप्त करते हैं।
इसके माध्यम
से उन्हें एक
दूसरे के साथ
समर्थन करने
की भावना होती
है, जिससे
समाज में
समरसता और
समर्थन महसूस
होता है। इस
प्रकार,
लोक
चित्रकला ने
सांस्कृतिक
विकास में
योगदान किया
है और लोगों
को उनके
स्वभाविक और
सांस्कृतिक
पहचान से
जोड़कर
समृद्धि और
समरसता की दिशा
में प्रेरित
किया है। 5. लोक चित्रकला और सांस्कृतिक सद्भाव ‘‘लोक
चित्रकला और
सांस्कृतिक
सद्भाव‘‘ का
होना एक
महत्वपूर्ण
विषय है जो
हमारी सांस्कृतिक
और कला सारांश
में बहुत
महत्वपूर्ण है।
यह सम्बंध लोक
कला और
सांस्कृतिक
विरासत के बीच
में होना
चाहिए Gairola (2009)। लोक संगीत
और नृत्य का
महत्व- लोक
चित्रकला में
सांस्कृतिक
सबभाव का सबसे
महत्वपूर्ण
हिस्सा है
जिससे हम अपने
लोक संगीत और
नृत्य की धारा
को बनाए रख
सकते हैं।
इससे लोग अपनी
पारंपरिक
सांस्कृतिक
मूल्यों को
समझते हैं और
आत्म-उत्सर्जन
में भाग लेते
हैं। कला का
सामाजिक
संदेश-लोक
चित्रकला एक
सामाजिक
संदेश का एक
महत्वपूर्ण
साधन है जो
सांस्कृतिक
सबभाव को
बढ़ावा देता
है। इसमें आम
जनता की
जीवनशैली, भावनाएं
और समस्याएं
दिखती हैं, जिससे
लोग अपने
आसपास के
सांस्कृतिक
परिदृश्यों
को समझ सकते
हैं। लोक कला
का
संरक्षण-लोक
चित्रकला के
माध्यम से हम
अपनी जीवंत
सांस्कृतिक
विरासत को
सुरक्षित रख
सकते हैं।
इससे नई
पीढ़ियों को
हमारे सांस्कृतिक
धरोहर के
प्रति आदर और
उनकी सुरक्षा
की भावना होती
है। समृद्धि
और विकास- लोक
चित्रकला और
सांस्कृतिक
सबभाव का
सद्भाव करने
से समृद्धि और
विकास होता
है। इससे
समृद्धि के
लिए जरूरी
सामाजिक और
आर्थिक
गुणस्तर को
बढ़ावा मिलता
है। इस प्रकार, लोक
चित्रकला और
सांस्कृतिक
सबभाव से
हमारी सांस्कृतिक
धरोहर को
सुरक्षित रखा
जा सकता है और
समृद्धि की
दिशा में एक
महत्वपूर्ण
क्रियाशील
भूमिका निभाई
जा सकती है Upadhyay (2015) 6. आधुनिक शिक्षा में लोक कला लोक कलाएँ
एक समृद्ध
भारतीय
सांस्कृतिक
धरोहर का
महत्वपूर्ण
हिस्सा हैं और
इनका आधुनिक शिक्षा
पर
महत्वपूर्ण
प्रभाव पड़ता
हैः 1)
लोक कलाओं
का शिक्षा में
शामिल होने से
भारतीय
सांस्कृतिक
धरोहर का
संरक्षण होता
है, जिससे
ये कलाएँ
सुरक्षित
रहती हैं और
पूरे देश में
युवाओं को
प्रेरित करती
हैं। 2)
लोक कलाओं
की शिक्षा
व्यक्तिगत और
सामाजिक एकता
को बढ़ावा देती
है, क्योंकि
ये कलाएँ
अलग-अलग
समुदायों के
बीच साझा की
जाती हैं और
सामूहिक
सांस्कृतिक
अनुभव प्रदान
करती हैं। 3)
लोक कलाएँ
विविधता को
बढ़ावा देती
हैं और भारतीय
सांस्कृतिक
विरासत को और
भी धनी बनाती
हैं, जिससे
सांस्कृतिक
समृद्धि होती
है। 4)
लोक कलाओं
का आधुनिक
शिक्षा का
कार्यक्षेत्र
बनाकर,
युवा
पीढ़ियों के
लिए नौकरी के
अवसर बढ़ा रही
हैं, जैसे
कि कला और
हस्तकला के
क्षेत्र में
रोजगार व
स्वरोजगार से
आर्थिक लाभ पा
रहे है । 5)
लोक कलाओं
की शिक्षा
उनकी प्रसारण
को बढ़ावा देती
है, जिससे
भारतीय
सांस्कृतिक
धरोहर का
ज्ञान और समझ
अधिक लोगों तक
पहुँचती है।
इन प्रभावों के
साथ, लोक
कलाओं का
आधुनिक
शिक्षा,
समृद्धि और
सांस्कृतिक
समृद्धि का
महत्वपूर्ण
साधक है। 7. निष्कर्ष व लोक कला की प्रसिद्धि लोक कला
प्रसिद्धि
प्राप्त होने
के लिए कुछ
आवश्यक गुण
होते हैं लोक कला
को आसानी से
समझा और
सीखा/सिखाया
जा सके। लोक
कला का भाषा, शब्द, रीति, रीवाज, चिन्ह, प्रतीक, आदि
लोकप्रिय
होने चाहिए।
लोक कला को
आकर्षक और
मनोरंजक व रुचिकर
बनाया जाना
चाहिए। लोक
कला का रूप, रंग, ध्वनि, गति, भाव, रस, आदि
दर्शकों को
प्रभावित और
प्रसन्न करने
वाले होने
चाहिए। लोक कला
को नवीनता और
उत्कृष्टता
से परिपूर्ण
बनाया जा सके।
इसके लिए लोक
कला का सामग्री, विषय, विचार, अभिप्राय, आदि
लोक की आवश्यकता, अभिरुचि, अनुभूति, आदि
का समानुरूप
होने चाहिए। 1) लोक
कला का व्यापक
रूप से
प्रचार-प्रसार
किया जा सके।
लोक कला को
विभिन्न
माध्यमों, जैसे
पत्रिका, रेडियो, टीवी, इंटरनेट, आदि
के जरिए लोगों
तक पहुंचाया
जाना चाहिए। 2) लोक
कला का
संरक्षण और
संवर्धन किया
जा सके। इसके
हेतु लोक कला
को उसकी मूलता, वैशिष्ट्य, गुणवत्ता, आदि
को बनाए रखते
हुए उसमें
आवश्यक
परिवर्तन और
सुधार किए
जाना चाहिए। 3) लोक
कला को सम्मान
और पुरस्कार
से नवाजा जाये।
लोक कला के
निर्माता, प्रदर्शक, अध्येता, आदि
को उनके
योगदान,
प्रतिभा, कौशल, आदि
के लिए उचित
मानदेय,
सम्मान, प्रशंसा, पुरस्कार, आदि
दिए जाना
चाहिए।
CONFLICT OF INTERESTSNone. ACKNOWLEDGMENTSNone. REFERENCESAravind, S. (1921, January). Bharatiya Sanskriti Ke Adhar. Pondicherry: Sri Aurobindo Ashram Publication Department. Dinkar, R. S. (1962). Four Chapter of Culture. Delhi: Janvani Printers & Publishers Private Limited. Gairola, V. (1983). Indian Painting. Varanasi: Vani Publication. Gairola, V. (2009, January 1). Bhartiya Chitrakala Ka Sanshipt Itihas. Prayagraj: Lokbharti Prakashan. Gupta, N. (2010, January 1). Bhartiya Lok Kala: Chhattisgarh Ke Sandarbh Me. Jaipur: Swati Publications. Jain, J. G. (1997, December 31). Tradition and Expression in Madhubani Painting. Banglore: Grantha Corporation. Mishra, J. (2018). Bundelkhand me Sajti Lok
Kala Mahabuliya. Bhopal:
Mera Ganv Conclave. Rajpurohit, B. L. (2015). Indian Art and Culture. Delhi: Shivalik Prakashan. Shastri, G. (2021, Septembar 1). Bhartiya Lok Kala ke Badalte Aayam (Chunautiyan aur Sambhavnaayen). Delhi: Notion Press. Upadhyay, U. (2015, January 1). Art and Architecture of Ancient India. Varanasi: Motilal Banarsidass Publishers Private Limited.
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