मानव जीवन में वर्ण का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक वस्तु कोई न कोई रंग लिये हुए है। रंगों के प्रति मानव का आकर्षण कभी घटा नही है। इसीलिये आदि मानव से लेकर आधुनिक मानव तक ने सौन्दर्य के विकास में वर्ण का सहारा लिया है। कमरे की रंग व्यवस्था से लेकर बाग बगीचों में फूल पौधों की रंगयोजना तक में कलाकार ने अपना हस्तक्षेप किया है क्योंकि रंगों का अपना एक प्रभाव होता है जो मानव की मानसिक भावनाओं को उद्वेलित करने की शक्ति रखता है। वर्ण सार्वभौमिक है तथा चित्रकला में सबसे अधिक महत्व रंग को दिया जाता है।
रंगों के विविध रुपों में मन की भावनायें जुड़ी हैं जैसे बसन्त का रंग नारंगी, मेघ का नीला, दीपक का पील, श्री का हरा, मालाकोश का काला और भैरव का सफेद जो चित्रों के आधार बने। अजन्ता काल से ही कलाकार रंग के प्रति सजग हो गया था। रंग जो अजन्ता में इतना उभार नहीं पा सके थे वे राजस्थानी व पहाड़ी कलम में अपनी पूर्ण चटख मटक के साथ फूट पड़ते हैं तथा यूरोप के अभिव्यंजनावाद व फावीवाद की तरह अभिव्यक्तिपरक हो गये। अजन्ता युग से लेकर जैन कला से होती हुई 16वीं शताब्दी तक इस परम्परा का विकास होता रहा।
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